बाबू
अगर मालगाड़ी थोडा और आगे सरक गई होती तो गगन किसी चक्के में फंसकर कट गया होता और इसका सारा दोष महेश अपने ऊपर ले लेता। स्कूल से आते वक़्त फाटक बंद देखा तो महेश और गगन दोनों टेम्पो से उतर कर फाटक तक पहुँच गए, यह सोचते हुए गाड़ी हमेशा चलती हुई दिखती है, आज रुकी हुई क्यों है. कुछ लोग फाटक के पास खड़े होकर व्यवस्था, कुछ डिपार्टमेंट और कुछ केंद्र सरकार को दोषी मान रहे थे... असल में मालगाड़ी का इंजन फ़ैल हो गया था। गगन ने महेश से पूछा ' भैया छोरा छोरी तो फ़ैल होते सुने, यह इंजन कैसे फ़ैल होता है ' महेश भैया कुछ समझा पाते इससे पहले गगन ही बोल पड़ा 'भैया वोह देखो खैराती कैसे डब्बों के बीच में से पटरी पार कर गया', चलो हम भी चलते हैं . महेश ने सोचा मालगाड़ी रुकी है थोडा रिस्क उठाने में कोई बुराई नहीं है, ऐसा एक ६ ठी कक्षा के विद्यार्थी के लिए कोई बड़ा फैसला नहीं था...इसलिए भी नहीं क्योंकि महेश सब चाचा ताऊ की संतांनों में सबसे बड़ा लड़का था, ताऊ की छोरी ९ वीं में थी तब।
इसी उधेड़बुन में गगन पटरी के पास पहुंचा मुड़कर महेश को देखा और उसकी चुप्पी को उसकी स्वीकारोक्ति मान कर डब्बों के बीच में कपलिंग पर चढ़ने की कोशिश करने लगा। फिर अचानक उसे ख्याल आया के उसके नीचे होकर भी जाया जा सकता है, नीचे झुककर ट्रैक के बीच में घुसा था की तभी मालगाड़ी थोडा पीछे सरकी लेकिन शायद गगन को पूर्वआभास हो गया था और वह फुर्ती से ट्रैक के दूसरी तरफ पहुँच गया। महेश डर गया था और इस मारे उसकी आवाज़ अन्दर ही दबी रह गयी, उसने महसूस किया कैसे उसके कान गरम हो गए और आँखें जैसे बाहर आ गयी हो , अगर वह चीखता तो फाटक तक के लोग वहां पहुँच जाते।
अब महेश सिर्फ भोले शंकर को और अपनी दादी को याद कर रहा था। कहते हैं की महेश की दादी ने बहुत समय तक भोले शंकर की पूजा अर्चना की और कई तरह के उपवास रखे तब मानिकलाल के आंगन में महेश का आगमन हुआ। अपनी इश भक्ति के कारण ही दादी ने मानिकलाल की पहली संतान का नाम महेश रखा।
गगन कह रहा था आ जाओ भैया .... आ घर.... फाटक से कुछ नहीं घर रहा था.... वह गुस्से से गगन को देख रहा था, गगन भैया के गुस्से को पहचान गया सो शांत खड़ा रहा। गाड़ी चल पड़ी तभी महेश ने ट्रैक पार किया.
घर फाटक से कोई आधा किलोमीटर भर होगा, मालगाड़ी में दूसरा इंजन लग चुका था और अब शायद वह जंक्शन तक पहुँच गयी होगी, लेकिन महेश और गगन अभी तक घर नहीं पहुंचे थे. ऐसा कभी हुआ नहीं के दोनों में से पहले घर कौन पहुंचेगा वाली दौड़ न हुई हो, आज दोनों साथ चल रहे थे और चाल थोड़ी धीरे थी. आज तो गगन ने हद ही कर दी.. महेश सोच रहा था जाकर माँ को सब कुछ बता दे.. वर्ना हजारी आकर बता देगा.. जाने क्यों हजारी हर उस जगह पर नारद मुनि की तरह हाज़िर हो जाता था जहाँ महेश और गगन होते और कुछ अप्रत्याशित घटने वाला हो... पूरी दोपहर दोनों चुपचाप थे, बीच बीच में गगन महेश की तरफ कातर नज़रों से देखने लगता शायद यह सोचकर की भैया का गुस्सा अब शांत हुआ होगा. शाम ढलने लगी, माँ काम में उलझी हुई थी और मानिकलाल अपनी बही खाते में, दादी ज़रूर ताड़ गयी की दाल में कुछ काला है... सूरज ढलने के साथ ही माँ आँगन में चारपाई बिछाकर उसपर तकिया और चादर बिछा देती. यहीं पर दादी अपने पोते पोती को कहानियों में बांधे रहती और घर की औरतें अपने काम निपटा रही होती. चारपाई बिछाने से पहले ही गगन और महेश को दादी ने बुला लिया और कहा तुम दोनों को आज एक अलग ही कहानी सुनती हूँ, दोनों भाई दादी की चारपाई बिछते ही दादी के पास आकार पालथी मार के बैठ गए. दादी ने उनसे पूछा - "क्या हुआ इस्कूल में" दोनों कभी एक दूसरे को देखते और कभी दादी को.. कुछ मिनट यही चलता रहा तभी गगन मुह खोलने को हुआ तो महेश ने उसका घुटना दबा कर उसे शांत कर दिया. सुबह दोनों भाई स्कूल जाने को हुए तो हजारी आ गया, गगन डर गया.. उसे लगा अब तो पोल खुलती दिखती है, तभी महेश ने हजारी से पूछा - तूने गणित का गृह कार्य कर लिया क्या, आज मर्साब सेवल पूछेंगे और जिसको नहीं आएगा उसको मैदान के २० चक्कर लगाने होंगे. हजारी कुछ सोचकर आया था लेकिन महेश ने उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया. "महेश तू मुझे सवाल समझा देगा क्या रिसेस में"
"हाँ देखता हूँ खाने के बाद" हजारी कुछ आश्वस्त हुआ. गगन सब देख रहा था पर उसके समझ में कुछ नहीं आया, लेकिन वह हजारी का चेहरा देखकर समझ गया की मुसीबत टल गयी.
समय बीतता रहा और महेश दसवी के बाद पास के कसबे में पढने के लिए जाने लगा. गगन नौंवी में आ गया, आठवी में कक्षा में अव्वल आया था. मानिकलाल जी बहुत खुश थे. गगन को साईकिल मिल गयी थी, ज्यादा पुरानी नहीं थी, मानिकलाल के सेठजी के लड़के का दिल भर आया था सो सेठ ने दया भाव दिखाकर और थोडा मानिकलाल को गरीबी का ताना देकर साईकिल दिलवा दी, 'अरे मानिकलाल वोह साईकिल ले जाना अब मुन्ना चला भी नहीं रहा है और वैसे भी अब शहर जाएगा तो स्कूटर दिवा देंगे, और तू क्या साईकिल खरीदेगा साढ़े तीन सौ की तनख्वाह में अपने छोरों के लिए...तेरे छोरे को दे देना वोह चला लेगा ' मानिकलाल कृतज्ञ भाव दर्शाते हुए साईकिल की चाबी दोनों हाथ फैलाकर और फिर हाथों को जोड़ते हुए बोले "मालिक जैसा आपको ठीक लगे". सेठ धनराज चाहें तो हर महीने ही एक साईकिल किसी मुलाजिम को दे दें, आखिर वह इलाके के सबसे बड़े और रसूख वाले व्यापारी थे. कमाई में भी सबसे आगे, यह राज़ मानिकलाल अच्छी तरह जानते थे की कपास, जीरा और प्याज में कितनी कमाई है. अगर लगाने को पैसा हो तो महीने में लाख पचास हज़ार निकालना कोई बड़ी बात नहीं.
महेश और गगन जब साथ होते तो गगन साईकिल आगे कर देता और कहता 'भैया आप चलाओ',
'अरे नहीं रे यह साईकिल तो तेरी है'
'मैं तो रोज़ ही खूब घूमता हूँ, तुम शाम को आते हो और हम कहाँ साथ जा पाते हैं'
एक दिन इसी तरह दोनों साईकिल पर जा रहे थे अचानक एक जगह रमेश ने साईकिल रुकवा दी और हैंडल पकड़कर साईकिल टेढ़ी करके दोनों को गिराने की करने लगा, उसके साथ उसके ३-४ साथी और भी थे. महेश ने साईकिल संभाली इतने में गगन को तड़ाक एक चांटा पड़ा, महेश को जल्दी ही समझ आ गया, यह सब मोहिनी के चक्कर में हो रहा है, मोहिनी सिर्फ महेश औरों के पड़ोस में रहती थी और गगन कभी उससे थोडा बहुत हंसी मजाक कर लिया करता था. यह बात रमेश को कभी रास नहीं आती और वह चाहता था की मोहिनी उससे और सिर्फ उससे बात करे.
गगन कुछ करता, इससे पहले महेश ने साईकिल छोड़ी और दे दाना दान रमेश पर घूसों की बरसात कर दी, ३-४ लड़के जो रमेश के साथ सीना तानकर और सर उंचा करे खड़े थे, कुछ ही देर में गलियों में दौड़ लगाते दिखे, रमेश के मुहं और नाक से खून आ रह था, काफी भीड़ इक्कठी हो गयी थी, कोई कुछ बात कर रहा था और कोई कुछ और जो थोड़ी देर से पहुंचा वह कह रहा था 'यह मानिक का छोटा लड़का, है ही बहुत बदमाश', किसी ने कहा 'झगडा तो रमेश ने शुरू किया', गगन तो सिर्फ देख रहा था, भैया का यह रौद्र रूप तो उसने पहले कभी नहीं देखा, रमेश भी कुछ बडबडाता हुआ भाग खड़ा हुआ. महेश ने अपने को कुछ काबू किया और फिर दोनों साईकिल उठाकर जल्दी से पास वाली गली में घुस गए.
"बाबू, तेरे चोट तो नहीं आई" महेश प्यार से गगन को बाबू कहता था, प्रेम आज एक बड़े भाई से बढ़कर बाप के प्यार तक पहुँच गया था.
"भैया आज तो आपने कमाल ही कर दिया" गगन हँसते हुए बोला "अब रास्ता रोकना भूल जाएगा स्साला रमेशिया"
"'अरे गाली नहीं निकालते", महेश अपनी तारीफ़ पर ज़रा मुस्कुराया.
दोनों आज फिर घर से कोई एक-आध किलोमीटर दूर होंगे, पर दोनों आज और कल की बातें करते हुए पैदल घर की तरफ हो लिए, साईकिल अब गगन के हाथ में थी.
मानिकलाल बीमार हुए, खांसी मिट नहीं रही थी, घर के नुस्खे जब कारगर न हुए तो वैद जी की दवा ली पर कुछ ख़ास असर न हुआ, वैदजी भी पुराने जानकर थे सो राय दी "शहर जाकर बड़े डाक्टर को दिखाओ". पहले तो मानिकलाल ने सोचा, बेवजह काम से छुट्टियाँ लेनी पड़ेगी और तनख्वाह कटेगी, फिर बड़े शहर में बड़े डाक्टर की फीस, दवाई का खर्च सो अलग, उनका मन न हुआ जाने को. थोड़े ही दिन में खांसी के साथ खून वाला बलगम गिरने लगा तब मानिकलाल जी ने शहर जाने की ठानी. शहर में एक बड़े डाक्टर को दिखाने पर उसने मानिकलाल जी को पौष्टिक भोजन लेने और पूरा आराम करने की सलाह दी, तपेदिक में दवा के साथ पूरा आराम भी ज़रूरी है. मानिकलाल को सूझ नहीं रहा था, महेश अपनी परीक्षा के बाद गाँव वापस आया था, पूरे २-३ महीने की छुट्टियाँ थी उसकी, परीक्षा परिणाम आने और कॉलेज में दाखिले के फॉर्म मिलने में अभी इतना ही समय था. मानिकलाल और महेश की माँ ने महेश से बोला की क्यों न वह यहीं कोई काम तलाश ले, पिता की सेवा भी हो जायेगी और अब बीमारी के चलते पढाई का खर्चा उठाने की हिम्मत उनमें न थी. घर का सबसे बड़ा लड़का होने के कारण महेश हमेशा शांत रहता और हर छोटे बड़े काम को अपना कर्त्तव्य मानता, पर आज तो बात उसके पूरे जीवन की हो रही थी, अगर वह काम करने लगेगा तो पढ़ाई नहीं कर पायेगा और एक अच्छी सरकारी नौकरी पाने का उसका सपना टूट जाएगा.
घर की बैठक के एक कोने में मानिकलाल की चारपाई बिछी हुई थी, उस चारपाई पर पतला बिछोना और एक मरियल से तकिये के सहारे मानिकलाल के दिन कट रहे थे. महेश ने अपने परिवार और बीमार पिता को देखते हुए यह फैसला किया की गाँव में ही काम करना इस वक़्त ठीक रहेगा, दादी ने मानिकलाल को बताया की महेश गाँव में ही नौकरी करने का सोच रहा है. मानिकलाल को थोड़ी ख़ुशी हुई और थोडा दुख, वह जानते थे की महेश के मन में बाबू बनने का सपना पल रहा था. मानिकलाल के मन में अजीब विचार आ रहे थे, की महेश उनकी चारपाई का एक ही पाया है जिसपर पूरी चारपाई का वज़न है, पहले वह एक ठोस लकड़ी का टुकड़ा था और अब उसे बढई ने छांग कर एक पाए का रूप दे दिया था. उस बढई को मानिकलाल पहचान नहीं पाए, अक्सर यह सारी शक्लें बैठक की छत पर ही बनती, मानिकलाल ताकते रहे, यह बढई तो एकदम जानी पहचानी शक्ल लिए हुए है, नहीं यह तो उन्ही का चेहरा था.
महेश को मानिकलाल ने सेठजी के यहाँ भेजा, सोचा सेठजी दयालु हैं, शायद महेश को रख लें. सेठजी के यहाँ की नौकरी पर तो कोई और मुनीम लग गया था पर फिर भी महेश पिता के कहने पर सेठ धनराज की दुकान पर गया. जेठ के महीने की तपन और बाहर बरामदे में लू के थपेड़ों के बीच महेश कोई पौने घंटे तक फर्श पर पतली चटाई पर सेठजी की गद्दी तक पहुँचने के लिए बैठा रहा, आखिर एक कारिंदे ने बुलाकर महेश को कहा "तुझे मालिक बुला रहे हैं". सेठ मानिकलाल के घर की स्थिति को अच्छी तरह जानते थे, उनकी बनिया बुद्धि ने एक और नौकर रखने की गवाही नहीं दी, पर महेश की किस्मत या मानिकलाल की सालों की इमानदारी को सोचते हुए सेठजी ने कहा "कल से आ जाना काम पे, देख भैया, में टेम का बड़ा पक्का हूँ, टेम का हमेसा ध्यान रखना. "
"जी सेठजी"
महेश ने घर जाकर माँ को सूचना दी, दादी को जाकर बताया और पिताजी के जागने का इंतज़ार करने लगा. एक गाँव के लड़के को पढाई ख़त्म होते ही गाँव में ठीक ठाक तनख्वाह वाली नौकरी मिले, तो शायद उस लड़के से भाग्यशाली कोई नहीं होगा. महेश सोच रहा था. तभी माँ ने बताया पिताजी जाग गए हैं. महेश ने पिताजी के पैर छुए और कहा "पिताजी सेठजी ने कल से काम पर बुलाया है."
"चलो अच्छा है", मानिकलाल को इससे ज्यादा कुछ सूझा नहीं.
समय अपनी चाल चलता रहा, महेश के पिताजी को एक दिन ऐसी ज़बरदस्त खांसी आई की बलगम के साथ उनके प्राण भी निकल गए. महेश ने पूरे घर को संभाला, ताऊजी तो कहते मेरा बेटा चला गया .. माँ का रो -रो कर बुरा हाल था, दादी तो जैसे जड़वत हो गयी. गगन ने भी चुप्पी पकड़ ली थी. समय जैसे महेश की परीक्षा ले रहा था. मानिकलाल की मृत्यु के ३ महीने बाद दादी भी चल बसी. महेश अभी भी सेठ के यहाँ नौकरी करता और साथ ही उसने सरकारी नौकरियों के लिए अर्ज़ियाँ भेजनी शुरू कर दी. महेश की मेहनत रंग लायी और उसका चयन रेलवे में असिस्टंट स्टेशन मास्टर के लिए हो गया. महेश ३ साल तक उड़ीसा में नौकरी करता रहा और अपनी तनख्वाह का बड़ा हिस्सा घर भेजता रहा. गगन पढाई कम और मटरगश्ती ज्यादा करता, कभी किसी से गाली गलौच, कभी किसी से झगडा. स्कूलपास करने के बाद गगन के पास कोई काम नहीं था, नौकरी का उसका कोई इरादा नहीं था. महेश ने माँ के कहने पर कुछ पैसे की व्यवस्था कर के गगन को परचून की दुकान खुलवा दी. गगन की दुकान पर दिन भर उसके दोस्तों का जमघट लगा रहता, कोई बीड़ी, कोई गुटखा और कोई घरेलु सामान गगन की दुकान से लेता रहा, लेकिन पैसे देने के नाम पर सब फिस्सड्डी, महेश जब भी गाँव आता तो गगन की दुकान पर ही उसका दिन निकलता, दोस्त उस समय गगन की दुकान पर फटकते नहीं थे, लेकिन और ग्राहक भी गगन की दुकान पर कम ही आते, महेश ने देखा की गगन की दुकान खास चल नहीं रही है और इतनी कम बिक्री में एक व्यक्ति अपना घर खर्च नहीं चला सकता. महेश ने कुछ सोचकर गगन की दुकान बंद करवाई, अपने साथ उसे शहर ले गया और अपने एक जानकर के पास उनकी प्रिंटिंग प्रेस पर काम सिखाने के लिए रखवा दिया. गगन को काम रास आ गया, दिन भर तरह तरह के मोटे-पतले कागज़ छपते, तरह तरह के डिब्बे और किताबें, वह लगभग सारे काम ध्यान से देखता और सीखने की कोशिश करता.
माँ ने महेश के रिश्ते की बात चलाई, कुछ ही महीनों में महेश की शादी हो गयी. श्यामा नाम की श्यामा थी पर थी बहुत सुन्दर, महेश के तो मानो भाग्य खुल गए. इधर गगन भी खूब मस्त रहने लगा, रोज़ ही नयी सब्जियां, कभी कुछ नया बनता रसोई में, जो गगन ने पहले कभी खाया नहीं था, भाभी बड़े मन से उसे खिलाती और कहती "आज गगन भैया आपको खाना पसंद नहीं आया लगता है..." और भाभी का दिल रखने के लिए थोडा और ले लेता और फिर थाली से उठने के बाद चूरन की गोलियां खता. भाह्बी से गगन की खूब बातें होती. श्यामा का कोई सगा भाई नहीं था. श्यामा ने एक बार गगन को बताया की कैसे उसके एकमात्र छोटे भाई की मृत्यु ९ साल की उम्र में बिच्छू काटने से हो गयी थी. श्यामा का स्नेह गगन पर खूब था, एक दिन गगन से कहा "भैया आप इनसे बात करो न, माँ को अब हम अपने पास बुला लेते हैं, गाँव में उनके लायक कोई काम भी नहीं है और फिर इस उम्र उनकी सेवा सुश्रा करने के लिए भी कोई नहीं है." गगन को बात जम गयी और उसने शाम के खाने पर भैया से बात की.
महेश ने कहा "मैं भी कई दिन से यही सोच रहा था"
माँ को थोड़े दिन तो शहर में अटपटा लगा लेकिन फिर उनका मन लग गया.
महेश ने एक दिन अकेले में माँ से कहा "अब गगन की भी उम्र हो आई है, उसकी शादी करवा देते हैं, अब तो ठीक ठाक कमा रहा है और आगे उसे अपनी प्रेस लगवा देंगे, तू क्या कहती है"
माँ तो वैसे भी महेश की कोई बात टालती नहीं थी. उन्होंने हाँ कर दी.
महेश और ताऊजी के काफी घूमने फिरने क बाद एक जगह बात पक्की हुई, घराना ठीक था. लड़की के पिता पटवारी थे.
गगन की शादी पर श्यामा तो जैसे पगला गयी, कभी इधर जाती कभी उधर जाती, सबसे कहती यह न छूट जाए, वो न रह जाए हर काम को खुद देखती और पक्का होने पर ही निश्चिन्त होती.
गगन की शादी हुई, रेखा का घर में आगमन हुआ. थोड़े दिन में ही रेखा ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया, सबसे पहले तो घूमने जाने के लिए गगन को राज़ी किया, महेश ने यह सोचा नया ज़माना है सो भेज दिया. कभी नई साड़ी तो कभी नए चप्पल, कभी सिनेमा तो कभी बाहर खाना, खर्चे बेशुमार और गगन की छोटी तनख्वाह. श्यामा अपनी तरफ से कई बार गगन को पैसे दे देती. महेश भी किसी बहाने गगन के हाथ रुपये पकड़ा देता. लेकिन हद तो तब हुई जब रेखा ने अलग रहने के लिए गगन पर दबाव बनाना शुरू किया.
महेश ने अर्जी देकर अपना तबादला करवा लिया, गगन को ३ लाख रुपये लगवा कर एक प्रिंटिंग प्रेस खुलवा दी और माँ और श्यामा को साथ लेकर दूसरे शहर चल दिया .
समय अपनी चाल चल रहा था. महेश के यहाँ दो जुड़वाँ लड़के पैदा हुए और फिर एक प्यारी सी गुड़िया. गगन के यहाँ तो एक ही पुत्र के बाद रेखा ने साफ़ मना कर दिया, आगे कोई संतान नहीं होगी.
गगन का काम शुरू में तो ठीक चलता रहा पर उसकी कभी कभी शराब पीने की तलब रोज़ की आदत बन गयी, इधर रेखा का बेशुमार खर्च और इधर गगन का शराब पीना, उधारियां बढ़ने लगी और पैसा शराब में और रेखा के बेहिसाब खर्चों में जाने लगा. एक दिन एक मुसलमान लेनदार प्रेस पर पहुँच गया और गगन को प्रेस उसे बेचने के लिया मजबूर करने लगा. गगन ने उस दिन महेश को खूब याद किया, गगन का चौदह वर्षीय बेटा इन्द्र भी उस दिन प्रेस पर ही था.
गाहे बगाहे गगन महेश को फ़ोन कर दिया करता था पर इन दिनों गगन का फ़ोन नहीं आया तो महेश ने घर फ़ोन मिलाया, इन्द्र से बात हुई.
इन्द्र ने अपने ताऊ महेश को बताया "पापा बहुत शराब पीने लगे हैं, अब तो माँ की भी नहीं सुनते, आपको तो बहुत ही याद करते हैं" महेश ने इन्द्र को ढाढस बंधाया "सब ठीक होगा बेटा, तू चिंता मत कर". कुछ ही दिन पश्चात रेखा ने हिम्मत करके श्यामा को फ़ोन मिलाया और सारी बात रख दी, अंत में रुआंसी होकर कहा "भाभी माफ़ नहीं करोगी क्या, छोटों से तो गलती हो जाया करती है"
श्यामा की आँखों से उस दिन खूब नीर बरसा, फ़ोन रखने के बाद भी.
एक दिन महेश ने प्रेस पर फ़ोन किया फ़ोन गगन ने उठाया "हलो"
"मैं बोल रहा हूँ"
"भैया आप, पाए लागूँ"
"खुश रहो"
"मैं यह क्या सुन रहा हूँ, तूने बाज़ार से बहुत पैसा उठाया है, शराब बहुत पिने लगा है, घर में भी पीने लगा है"
"वोह भैया... वोह"
काफी देर तक महेश और गगन की बात होती रही.
एकाएक गगन ने कहा "भैया, अकेला पड़ गया हूँ, क्या करूं"
महेश कुछ नहीं बोला, दोनों ही तरफ सन्नाटा था, मानो मन ही मन कुछ बात हो रही हो, महेश की आँख की कोर गीली हो आई, "बाबू तू एक बार तो कहता"
फिर दोनों भाई कुछ पल मौन रहे और फिर महेश बोला "गगन ..."
"हाँ भैया...." आवाज़ कुछ भर्रायी हुई थी और गगन ने फ़ोन रख दिया.
दूसरे दिन महेश सुबह ग्यारह बजे की ट्रेन से गगन के शहर पहुंचे, सीधे घर गए और रेखा और इन्द्र को सामान बाँधने को कहा. खाना खाकर प्रेस पर पहुंचे.
प्रेस पर गगन को ललाट पर हाथ रखे देखा, ऐसा लगा मानो महेश अपने पिताजी मानिकलाल को देख रहे हों, आखिरी दिनों में मानिकलाल भी ऐसे ही उदास होकर अपने ललाट पर हाथ रखकर बैठ जाया करते थे.
महेश ने कहा "बाबू..."
गगन ने सर उठाया तो एकबारगी तो विश्वास नहीं हुआ.
"भैया ..." और गगन महेश के गले लग गया.
दोनों भाई एक दूसरे के आलिंगन में कुछ देर ऐसे ही बंधे रहे. फिर गगन के चेहरे से आंसू पोंछते हुए महेश ने कहा "अरे तू तो रोने लगा" "
आप भी तो रो रहे हैं " गगन थोडा हँसते हुए बोला और दोनों भाई आंसू पोंछते हुए हंसने लगे.
गगन का परिवार अब महेश के परिवार के साथ है. बच्चे साथ खेलते हैं, रेखा श्यामा की छोटी बहिन सी हो गयी है और अपनी दीदी का कहा अक्षरश: पालन करती है. गगन ने शराब छोड़ दी है, डॉक्टर और घर का उम्दा माहौल ने गगन को संबल दिया है और गगन की प्रेस आज शहर की सबसे बढ़िया प्रेस है. महेश की नौकरी ठीक चल रही है, अब जल्दी ही वी आर एस लेकर गगन के साथ प्रेस का काम देखेंगे.
इसी उधेड़बुन में गगन पटरी के पास पहुंचा मुड़कर महेश को देखा और उसकी चुप्पी को उसकी स्वीकारोक्ति मान कर डब्बों के बीच में कपलिंग पर चढ़ने की कोशिश करने लगा। फिर अचानक उसे ख्याल आया के उसके नीचे होकर भी जाया जा सकता है, नीचे झुककर ट्रैक के बीच में घुसा था की तभी मालगाड़ी थोडा पीछे सरकी लेकिन शायद गगन को पूर्वआभास हो गया था और वह फुर्ती से ट्रैक के दूसरी तरफ पहुँच गया। महेश डर गया था और इस मारे उसकी आवाज़ अन्दर ही दबी रह गयी, उसने महसूस किया कैसे उसके कान गरम हो गए और आँखें जैसे बाहर आ गयी हो , अगर वह चीखता तो फाटक तक के लोग वहां पहुँच जाते।
अब महेश सिर्फ भोले शंकर को और अपनी दादी को याद कर रहा था। कहते हैं की महेश की दादी ने बहुत समय तक भोले शंकर की पूजा अर्चना की और कई तरह के उपवास रखे तब मानिकलाल के आंगन में महेश का आगमन हुआ। अपनी इश भक्ति के कारण ही दादी ने मानिकलाल की पहली संतान का नाम महेश रखा।
गगन कह रहा था आ जाओ भैया .... आ घर.... फाटक से कुछ नहीं घर रहा था.... वह गुस्से से गगन को देख रहा था, गगन भैया के गुस्से को पहचान गया सो शांत खड़ा रहा। गाड़ी चल पड़ी तभी महेश ने ट्रैक पार किया.
घर फाटक से कोई आधा किलोमीटर भर होगा, मालगाड़ी में दूसरा इंजन लग चुका था और अब शायद वह जंक्शन तक पहुँच गयी होगी, लेकिन महेश और गगन अभी तक घर नहीं पहुंचे थे. ऐसा कभी हुआ नहीं के दोनों में से पहले घर कौन पहुंचेगा वाली दौड़ न हुई हो, आज दोनों साथ चल रहे थे और चाल थोड़ी धीरे थी. आज तो गगन ने हद ही कर दी.. महेश सोच रहा था जाकर माँ को सब कुछ बता दे.. वर्ना हजारी आकर बता देगा.. जाने क्यों हजारी हर उस जगह पर नारद मुनि की तरह हाज़िर हो जाता था जहाँ महेश और गगन होते और कुछ अप्रत्याशित घटने वाला हो... पूरी दोपहर दोनों चुपचाप थे, बीच बीच में गगन महेश की तरफ कातर नज़रों से देखने लगता शायद यह सोचकर की भैया का गुस्सा अब शांत हुआ होगा. शाम ढलने लगी, माँ काम में उलझी हुई थी और मानिकलाल अपनी बही खाते में, दादी ज़रूर ताड़ गयी की दाल में कुछ काला है... सूरज ढलने के साथ ही माँ आँगन में चारपाई बिछाकर उसपर तकिया और चादर बिछा देती. यहीं पर दादी अपने पोते पोती को कहानियों में बांधे रहती और घर की औरतें अपने काम निपटा रही होती. चारपाई बिछाने से पहले ही गगन और महेश को दादी ने बुला लिया और कहा तुम दोनों को आज एक अलग ही कहानी सुनती हूँ, दोनों भाई दादी की चारपाई बिछते ही दादी के पास आकार पालथी मार के बैठ गए. दादी ने उनसे पूछा - "क्या हुआ इस्कूल में" दोनों कभी एक दूसरे को देखते और कभी दादी को.. कुछ मिनट यही चलता रहा तभी गगन मुह खोलने को हुआ तो महेश ने उसका घुटना दबा कर उसे शांत कर दिया. सुबह दोनों भाई स्कूल जाने को हुए तो हजारी आ गया, गगन डर गया.. उसे लगा अब तो पोल खुलती दिखती है, तभी महेश ने हजारी से पूछा - तूने गणित का गृह कार्य कर लिया क्या, आज मर्साब सेवल पूछेंगे और जिसको नहीं आएगा उसको मैदान के २० चक्कर लगाने होंगे. हजारी कुछ सोचकर आया था लेकिन महेश ने उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया. "महेश तू मुझे सवाल समझा देगा क्या रिसेस में"
"हाँ देखता हूँ खाने के बाद" हजारी कुछ आश्वस्त हुआ. गगन सब देख रहा था पर उसके समझ में कुछ नहीं आया, लेकिन वह हजारी का चेहरा देखकर समझ गया की मुसीबत टल गयी.
समय बीतता रहा और महेश दसवी के बाद पास के कसबे में पढने के लिए जाने लगा. गगन नौंवी में आ गया, आठवी में कक्षा में अव्वल आया था. मानिकलाल जी बहुत खुश थे. गगन को साईकिल मिल गयी थी, ज्यादा पुरानी नहीं थी, मानिकलाल के सेठजी के लड़के का दिल भर आया था सो सेठ ने दया भाव दिखाकर और थोडा मानिकलाल को गरीबी का ताना देकर साईकिल दिलवा दी, 'अरे मानिकलाल वोह साईकिल ले जाना अब मुन्ना चला भी नहीं रहा है और वैसे भी अब शहर जाएगा तो स्कूटर दिवा देंगे, और तू क्या साईकिल खरीदेगा साढ़े तीन सौ की तनख्वाह में अपने छोरों के लिए...तेरे छोरे को दे देना वोह चला लेगा ' मानिकलाल कृतज्ञ भाव दर्शाते हुए साईकिल की चाबी दोनों हाथ फैलाकर और फिर हाथों को जोड़ते हुए बोले "मालिक जैसा आपको ठीक लगे". सेठ धनराज चाहें तो हर महीने ही एक साईकिल किसी मुलाजिम को दे दें, आखिर वह इलाके के सबसे बड़े और रसूख वाले व्यापारी थे. कमाई में भी सबसे आगे, यह राज़ मानिकलाल अच्छी तरह जानते थे की कपास, जीरा और प्याज में कितनी कमाई है. अगर लगाने को पैसा हो तो महीने में लाख पचास हज़ार निकालना कोई बड़ी बात नहीं.
महेश और गगन जब साथ होते तो गगन साईकिल आगे कर देता और कहता 'भैया आप चलाओ',
'अरे नहीं रे यह साईकिल तो तेरी है'
'मैं तो रोज़ ही खूब घूमता हूँ, तुम शाम को आते हो और हम कहाँ साथ जा पाते हैं'
एक दिन इसी तरह दोनों साईकिल पर जा रहे थे अचानक एक जगह रमेश ने साईकिल रुकवा दी और हैंडल पकड़कर साईकिल टेढ़ी करके दोनों को गिराने की करने लगा, उसके साथ उसके ३-४ साथी और भी थे. महेश ने साईकिल संभाली इतने में गगन को तड़ाक एक चांटा पड़ा, महेश को जल्दी ही समझ आ गया, यह सब मोहिनी के चक्कर में हो रहा है, मोहिनी सिर्फ महेश औरों के पड़ोस में रहती थी और गगन कभी उससे थोडा बहुत हंसी मजाक कर लिया करता था. यह बात रमेश को कभी रास नहीं आती और वह चाहता था की मोहिनी उससे और सिर्फ उससे बात करे.
गगन कुछ करता, इससे पहले महेश ने साईकिल छोड़ी और दे दाना दान रमेश पर घूसों की बरसात कर दी, ३-४ लड़के जो रमेश के साथ सीना तानकर और सर उंचा करे खड़े थे, कुछ ही देर में गलियों में दौड़ लगाते दिखे, रमेश के मुहं और नाक से खून आ रह था, काफी भीड़ इक्कठी हो गयी थी, कोई कुछ बात कर रहा था और कोई कुछ और जो थोड़ी देर से पहुंचा वह कह रहा था 'यह मानिक का छोटा लड़का, है ही बहुत बदमाश', किसी ने कहा 'झगडा तो रमेश ने शुरू किया', गगन तो सिर्फ देख रहा था, भैया का यह रौद्र रूप तो उसने पहले कभी नहीं देखा, रमेश भी कुछ बडबडाता हुआ भाग खड़ा हुआ. महेश ने अपने को कुछ काबू किया और फिर दोनों साईकिल उठाकर जल्दी से पास वाली गली में घुस गए.
"बाबू, तेरे चोट तो नहीं आई" महेश प्यार से गगन को बाबू कहता था, प्रेम आज एक बड़े भाई से बढ़कर बाप के प्यार तक पहुँच गया था.
"भैया आज तो आपने कमाल ही कर दिया" गगन हँसते हुए बोला "अब रास्ता रोकना भूल जाएगा स्साला रमेशिया"
"'अरे गाली नहीं निकालते", महेश अपनी तारीफ़ पर ज़रा मुस्कुराया.
दोनों आज फिर घर से कोई एक-आध किलोमीटर दूर होंगे, पर दोनों आज और कल की बातें करते हुए पैदल घर की तरफ हो लिए, साईकिल अब गगन के हाथ में थी.
मानिकलाल बीमार हुए, खांसी मिट नहीं रही थी, घर के नुस्खे जब कारगर न हुए तो वैद जी की दवा ली पर कुछ ख़ास असर न हुआ, वैदजी भी पुराने जानकर थे सो राय दी "शहर जाकर बड़े डाक्टर को दिखाओ". पहले तो मानिकलाल ने सोचा, बेवजह काम से छुट्टियाँ लेनी पड़ेगी और तनख्वाह कटेगी, फिर बड़े शहर में बड़े डाक्टर की फीस, दवाई का खर्च सो अलग, उनका मन न हुआ जाने को. थोड़े ही दिन में खांसी के साथ खून वाला बलगम गिरने लगा तब मानिकलाल जी ने शहर जाने की ठानी. शहर में एक बड़े डाक्टर को दिखाने पर उसने मानिकलाल जी को पौष्टिक भोजन लेने और पूरा आराम करने की सलाह दी, तपेदिक में दवा के साथ पूरा आराम भी ज़रूरी है. मानिकलाल को सूझ नहीं रहा था, महेश अपनी परीक्षा के बाद गाँव वापस आया था, पूरे २-३ महीने की छुट्टियाँ थी उसकी, परीक्षा परिणाम आने और कॉलेज में दाखिले के फॉर्म मिलने में अभी इतना ही समय था. मानिकलाल और महेश की माँ ने महेश से बोला की क्यों न वह यहीं कोई काम तलाश ले, पिता की सेवा भी हो जायेगी और अब बीमारी के चलते पढाई का खर्चा उठाने की हिम्मत उनमें न थी. घर का सबसे बड़ा लड़का होने के कारण महेश हमेशा शांत रहता और हर छोटे बड़े काम को अपना कर्त्तव्य मानता, पर आज तो बात उसके पूरे जीवन की हो रही थी, अगर वह काम करने लगेगा तो पढ़ाई नहीं कर पायेगा और एक अच्छी सरकारी नौकरी पाने का उसका सपना टूट जाएगा.
घर की बैठक के एक कोने में मानिकलाल की चारपाई बिछी हुई थी, उस चारपाई पर पतला बिछोना और एक मरियल से तकिये के सहारे मानिकलाल के दिन कट रहे थे. महेश ने अपने परिवार और बीमार पिता को देखते हुए यह फैसला किया की गाँव में ही काम करना इस वक़्त ठीक रहेगा, दादी ने मानिकलाल को बताया की महेश गाँव में ही नौकरी करने का सोच रहा है. मानिकलाल को थोड़ी ख़ुशी हुई और थोडा दुख, वह जानते थे की महेश के मन में बाबू बनने का सपना पल रहा था. मानिकलाल के मन में अजीब विचार आ रहे थे, की महेश उनकी चारपाई का एक ही पाया है जिसपर पूरी चारपाई का वज़न है, पहले वह एक ठोस लकड़ी का टुकड़ा था और अब उसे बढई ने छांग कर एक पाए का रूप दे दिया था. उस बढई को मानिकलाल पहचान नहीं पाए, अक्सर यह सारी शक्लें बैठक की छत पर ही बनती, मानिकलाल ताकते रहे, यह बढई तो एकदम जानी पहचानी शक्ल लिए हुए है, नहीं यह तो उन्ही का चेहरा था.
महेश को मानिकलाल ने सेठजी के यहाँ भेजा, सोचा सेठजी दयालु हैं, शायद महेश को रख लें. सेठजी के यहाँ की नौकरी पर तो कोई और मुनीम लग गया था पर फिर भी महेश पिता के कहने पर सेठ धनराज की दुकान पर गया. जेठ के महीने की तपन और बाहर बरामदे में लू के थपेड़ों के बीच महेश कोई पौने घंटे तक फर्श पर पतली चटाई पर सेठजी की गद्दी तक पहुँचने के लिए बैठा रहा, आखिर एक कारिंदे ने बुलाकर महेश को कहा "तुझे मालिक बुला रहे हैं". सेठ मानिकलाल के घर की स्थिति को अच्छी तरह जानते थे, उनकी बनिया बुद्धि ने एक और नौकर रखने की गवाही नहीं दी, पर महेश की किस्मत या मानिकलाल की सालों की इमानदारी को सोचते हुए सेठजी ने कहा "कल से आ जाना काम पे, देख भैया, में टेम का बड़ा पक्का हूँ, टेम का हमेसा ध्यान रखना. "
"जी सेठजी"
महेश ने घर जाकर माँ को सूचना दी, दादी को जाकर बताया और पिताजी के जागने का इंतज़ार करने लगा. एक गाँव के लड़के को पढाई ख़त्म होते ही गाँव में ठीक ठाक तनख्वाह वाली नौकरी मिले, तो शायद उस लड़के से भाग्यशाली कोई नहीं होगा. महेश सोच रहा था. तभी माँ ने बताया पिताजी जाग गए हैं. महेश ने पिताजी के पैर छुए और कहा "पिताजी सेठजी ने कल से काम पर बुलाया है."
"चलो अच्छा है", मानिकलाल को इससे ज्यादा कुछ सूझा नहीं.
समय अपनी चाल चलता रहा, महेश के पिताजी को एक दिन ऐसी ज़बरदस्त खांसी आई की बलगम के साथ उनके प्राण भी निकल गए. महेश ने पूरे घर को संभाला, ताऊजी तो कहते मेरा बेटा चला गया .. माँ का रो -रो कर बुरा हाल था, दादी तो जैसे जड़वत हो गयी. गगन ने भी चुप्पी पकड़ ली थी. समय जैसे महेश की परीक्षा ले रहा था. मानिकलाल की मृत्यु के ३ महीने बाद दादी भी चल बसी. महेश अभी भी सेठ के यहाँ नौकरी करता और साथ ही उसने सरकारी नौकरियों के लिए अर्ज़ियाँ भेजनी शुरू कर दी. महेश की मेहनत रंग लायी और उसका चयन रेलवे में असिस्टंट स्टेशन मास्टर के लिए हो गया. महेश ३ साल तक उड़ीसा में नौकरी करता रहा और अपनी तनख्वाह का बड़ा हिस्सा घर भेजता रहा. गगन पढाई कम और मटरगश्ती ज्यादा करता, कभी किसी से गाली गलौच, कभी किसी से झगडा. स्कूलपास करने के बाद गगन के पास कोई काम नहीं था, नौकरी का उसका कोई इरादा नहीं था. महेश ने माँ के कहने पर कुछ पैसे की व्यवस्था कर के गगन को परचून की दुकान खुलवा दी. गगन की दुकान पर दिन भर उसके दोस्तों का जमघट लगा रहता, कोई बीड़ी, कोई गुटखा और कोई घरेलु सामान गगन की दुकान से लेता रहा, लेकिन पैसे देने के नाम पर सब फिस्सड्डी, महेश जब भी गाँव आता तो गगन की दुकान पर ही उसका दिन निकलता, दोस्त उस समय गगन की दुकान पर फटकते नहीं थे, लेकिन और ग्राहक भी गगन की दुकान पर कम ही आते, महेश ने देखा की गगन की दुकान खास चल नहीं रही है और इतनी कम बिक्री में एक व्यक्ति अपना घर खर्च नहीं चला सकता. महेश ने कुछ सोचकर गगन की दुकान बंद करवाई, अपने साथ उसे शहर ले गया और अपने एक जानकर के पास उनकी प्रिंटिंग प्रेस पर काम सिखाने के लिए रखवा दिया. गगन को काम रास आ गया, दिन भर तरह तरह के मोटे-पतले कागज़ छपते, तरह तरह के डिब्बे और किताबें, वह लगभग सारे काम ध्यान से देखता और सीखने की कोशिश करता.
माँ ने महेश के रिश्ते की बात चलाई, कुछ ही महीनों में महेश की शादी हो गयी. श्यामा नाम की श्यामा थी पर थी बहुत सुन्दर, महेश के तो मानो भाग्य खुल गए. इधर गगन भी खूब मस्त रहने लगा, रोज़ ही नयी सब्जियां, कभी कुछ नया बनता रसोई में, जो गगन ने पहले कभी खाया नहीं था, भाभी बड़े मन से उसे खिलाती और कहती "आज गगन भैया आपको खाना पसंद नहीं आया लगता है..." और भाभी का दिल रखने के लिए थोडा और ले लेता और फिर थाली से उठने के बाद चूरन की गोलियां खता. भाह्बी से गगन की खूब बातें होती. श्यामा का कोई सगा भाई नहीं था. श्यामा ने एक बार गगन को बताया की कैसे उसके एकमात्र छोटे भाई की मृत्यु ९ साल की उम्र में बिच्छू काटने से हो गयी थी. श्यामा का स्नेह गगन पर खूब था, एक दिन गगन से कहा "भैया आप इनसे बात करो न, माँ को अब हम अपने पास बुला लेते हैं, गाँव में उनके लायक कोई काम भी नहीं है और फिर इस उम्र उनकी सेवा सुश्रा करने के लिए भी कोई नहीं है." गगन को बात जम गयी और उसने शाम के खाने पर भैया से बात की.
महेश ने कहा "मैं भी कई दिन से यही सोच रहा था"
माँ को थोड़े दिन तो शहर में अटपटा लगा लेकिन फिर उनका मन लग गया.
महेश ने एक दिन अकेले में माँ से कहा "अब गगन की भी उम्र हो आई है, उसकी शादी करवा देते हैं, अब तो ठीक ठाक कमा रहा है और आगे उसे अपनी प्रेस लगवा देंगे, तू क्या कहती है"
माँ तो वैसे भी महेश की कोई बात टालती नहीं थी. उन्होंने हाँ कर दी.
महेश और ताऊजी के काफी घूमने फिरने क बाद एक जगह बात पक्की हुई, घराना ठीक था. लड़की के पिता पटवारी थे.
गगन की शादी पर श्यामा तो जैसे पगला गयी, कभी इधर जाती कभी उधर जाती, सबसे कहती यह न छूट जाए, वो न रह जाए हर काम को खुद देखती और पक्का होने पर ही निश्चिन्त होती.
गगन की शादी हुई, रेखा का घर में आगमन हुआ. थोड़े दिन में ही रेखा ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया, सबसे पहले तो घूमने जाने के लिए गगन को राज़ी किया, महेश ने यह सोचा नया ज़माना है सो भेज दिया. कभी नई साड़ी तो कभी नए चप्पल, कभी सिनेमा तो कभी बाहर खाना, खर्चे बेशुमार और गगन की छोटी तनख्वाह. श्यामा अपनी तरफ से कई बार गगन को पैसे दे देती. महेश भी किसी बहाने गगन के हाथ रुपये पकड़ा देता. लेकिन हद तो तब हुई जब रेखा ने अलग रहने के लिए गगन पर दबाव बनाना शुरू किया.
महेश ने अर्जी देकर अपना तबादला करवा लिया, गगन को ३ लाख रुपये लगवा कर एक प्रिंटिंग प्रेस खुलवा दी और माँ और श्यामा को साथ लेकर दूसरे शहर चल दिया .
समय अपनी चाल चल रहा था. महेश के यहाँ दो जुड़वाँ लड़के पैदा हुए और फिर एक प्यारी सी गुड़िया. गगन के यहाँ तो एक ही पुत्र के बाद रेखा ने साफ़ मना कर दिया, आगे कोई संतान नहीं होगी.
गगन का काम शुरू में तो ठीक चलता रहा पर उसकी कभी कभी शराब पीने की तलब रोज़ की आदत बन गयी, इधर रेखा का बेशुमार खर्च और इधर गगन का शराब पीना, उधारियां बढ़ने लगी और पैसा शराब में और रेखा के बेहिसाब खर्चों में जाने लगा. एक दिन एक मुसलमान लेनदार प्रेस पर पहुँच गया और गगन को प्रेस उसे बेचने के लिया मजबूर करने लगा. गगन ने उस दिन महेश को खूब याद किया, गगन का चौदह वर्षीय बेटा इन्द्र भी उस दिन प्रेस पर ही था.
गाहे बगाहे गगन महेश को फ़ोन कर दिया करता था पर इन दिनों गगन का फ़ोन नहीं आया तो महेश ने घर फ़ोन मिलाया, इन्द्र से बात हुई.
इन्द्र ने अपने ताऊ महेश को बताया "पापा बहुत शराब पीने लगे हैं, अब तो माँ की भी नहीं सुनते, आपको तो बहुत ही याद करते हैं" महेश ने इन्द्र को ढाढस बंधाया "सब ठीक होगा बेटा, तू चिंता मत कर". कुछ ही दिन पश्चात रेखा ने हिम्मत करके श्यामा को फ़ोन मिलाया और सारी बात रख दी, अंत में रुआंसी होकर कहा "भाभी माफ़ नहीं करोगी क्या, छोटों से तो गलती हो जाया करती है"
श्यामा की आँखों से उस दिन खूब नीर बरसा, फ़ोन रखने के बाद भी.
एक दिन महेश ने प्रेस पर फ़ोन किया फ़ोन गगन ने उठाया "हलो"
"मैं बोल रहा हूँ"
"भैया आप, पाए लागूँ"
"खुश रहो"
"मैं यह क्या सुन रहा हूँ, तूने बाज़ार से बहुत पैसा उठाया है, शराब बहुत पिने लगा है, घर में भी पीने लगा है"
"वोह भैया... वोह"
काफी देर तक महेश और गगन की बात होती रही.
एकाएक गगन ने कहा "भैया, अकेला पड़ गया हूँ, क्या करूं"
महेश कुछ नहीं बोला, दोनों ही तरफ सन्नाटा था, मानो मन ही मन कुछ बात हो रही हो, महेश की आँख की कोर गीली हो आई, "बाबू तू एक बार तो कहता"
फिर दोनों भाई कुछ पल मौन रहे और फिर महेश बोला "गगन ..."
"हाँ भैया...." आवाज़ कुछ भर्रायी हुई थी और गगन ने फ़ोन रख दिया.
दूसरे दिन महेश सुबह ग्यारह बजे की ट्रेन से गगन के शहर पहुंचे, सीधे घर गए और रेखा और इन्द्र को सामान बाँधने को कहा. खाना खाकर प्रेस पर पहुंचे.
प्रेस पर गगन को ललाट पर हाथ रखे देखा, ऐसा लगा मानो महेश अपने पिताजी मानिकलाल को देख रहे हों, आखिरी दिनों में मानिकलाल भी ऐसे ही उदास होकर अपने ललाट पर हाथ रखकर बैठ जाया करते थे.
महेश ने कहा "बाबू..."
गगन ने सर उठाया तो एकबारगी तो विश्वास नहीं हुआ.
"भैया ..." और गगन महेश के गले लग गया.
दोनों भाई एक दूसरे के आलिंगन में कुछ देर ऐसे ही बंधे रहे. फिर गगन के चेहरे से आंसू पोंछते हुए महेश ने कहा "अरे तू तो रोने लगा" "
आप भी तो रो रहे हैं " गगन थोडा हँसते हुए बोला और दोनों भाई आंसू पोंछते हुए हंसने लगे.
गगन का परिवार अब महेश के परिवार के साथ है. बच्चे साथ खेलते हैं, रेखा श्यामा की छोटी बहिन सी हो गयी है और अपनी दीदी का कहा अक्षरश: पालन करती है. गगन ने शराब छोड़ दी है, डॉक्टर और घर का उम्दा माहौल ने गगन को संबल दिया है और गगन की प्रेस आज शहर की सबसे बढ़िया प्रेस है. महेश की नौकरी ठीक चल रही है, अब जल्दी ही वी आर एस लेकर गगन के साथ प्रेस का काम देखेंगे.
कहानी लम्बी है पर प्रवाह बना रहा पूरी रचना में.....
ReplyDeleteप्रासंगिक विषय को दर्शाती है कथा ..... सच में परिवारों में कुछ ऐसा
ही हाल है...... अंत प्रेरणादायक ......
Office ja raha hoon....
ReplyDeleteAadhi padh lee hai....
Achhi hai!
Tafseel se tippaniyaunga, shaam ko!
Ashish
Just noticed your latest post.
ReplyDeleteIt's rather long.
I will read later this Sunday.
I'm busy now.
Just one point.
Your font size is smaller than the threshhold font size that is comfortable for persons of my age. I am 61.
I find it difficult and strenuous to read text of this size on a comuter screen.
The font size in Gyanduttjee's blog is very comfortable for me. (see halchal.gyandutt.com)
In the blogs of others, whenever I encounter such small sizes I copy the entire text and paste it into my editor and increase the font size before reading it.
I found I could not highlight the text from your blog and copy it.
Is this intentionally done by you?
Or is something wrong with my browser settings?
I am easily able to copy and paste text from the blogs of others.
I will read and post my comment later.
Regards
G Vishwanath
लो भाई, हमने साँस रोककर, पूरी कहानी पढ ली!
ReplyDeleteबस कहानी में यदि यहाँ वहाँ कोई twist and turn होता, यदि रेखा के कारनामों के अधिक विवरण होते, रेखा और श्यामा के बीच कुछ मसालेदार dialogue भी जोड देते, तो बालाजी टेलिफ़िल्म्स का एक नया टी वी सीरयल का स्क्रिप्ट बन सकता था ।
यह कहानी यदि आप पच्चीस साल पहले लिखते, तो संभवत सलीम जावेद की जोडी आपकी यह कहानी को लेकर एक और अमिताभ बच्चन स्टारर तैयार कर देते। मालगाडी / फ़ाटक की वह घटना एक अच्छा ब्लैक and व्हाइट में flashback scene बन सकता था!
अब मज़ाक छोडिए। कहानी अच्छी लगी।
एक आम भारतीय संयुक्त परिवार (joint family) का दृश्य और situation बखूबी खींचा है आपने।
कितने ऐसे परिवार होंगे, जहाँ ज्येष्ठ पुत्र को परिवार के लिए भारी जिम्मेदारियाँ उठानी पडती है। बूढे होते होते उसे कई सारे दुखों का सामना करना पढ़ता है और अपने छोटे बहन-भाईओं के खातिर बहुत कुछ त्यागना पडता है।
अपने पिताजी के अधूरे कामों को पूरा करने की जिम्मेदारी भी उसी के कन्धों पर आ जाती है। उसकी पत्नि उसका साथ देती है बिना फ़रियाद किए और सारे परिवार के लिय माँ बन जाती है। और इतना सब कुछ करने के बाद कभी कभी अंत में परिवार के अन्य सदस्य इस एहसान को भूल जाते हैं और बुढापा अकेले में काटना पडता है।
यह है भारतीय परंपरा, जो पाश्चात्य देशों में आप नहीं देख पाएंगे।
वहाँ तो समाज/परिवार/व्यक्ति सभी स्वार्थी होते हैं और उनको इस बात का खयाल भी नहीं रहता। महेश जैसा भाई तो वहाँ मूर्ख कहलाएगा। श्यामा उसे तलाक दे चुकी होती। सोचेगी, मैंने किस से शादी की? महेश से या उसके परिवार से?
पर आजकल हम भी उन लोगों की नकल करने लगे हैं।
यहाँ भी परिवार टूट रहे हैं। भाईओं के बीच ऐसा प्यार कम दिखाई देता है।
अम्बानी बन्धुओं का उदाहरण लीजिए। काश मुकेश और अनिल के बीच ऐसा रिश्ता होता जो गगन और महेश के बीच है।
एक पठनीय कहानी लिखने के लिए बधाई।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
PS
Don't bother about font size.
I use Windows Vista at my laptop at home.
I just pressed ctrl-shift-+ (Ctrl/shift/plus sign) and the screen zoomed up a little
The text size increased.
I pressed it again, and the font was now fully readable.
I don't know if it works in Windows XP or Windows 2K
To go back to original screen size one must press ctrl-shift- - (Ctrl/shift/minus sign)
Hopefully this tip will be useful to others.
मनोज,
ReplyDeleteअच्छा लिखते हो.... जो सबसे अच्छी बात है वो ये के आँखों के सामने चित्र उकेर देने में सक्षम हैं आपके शब्द.
ऐसा लगा मानो पढ़ नहीं रहा हूँ.... फ़िल्म देख रहा हूँ!
वल्लाह! बधाई!
अब कुछ गुफ़्तगू विश्वनाथ जी से:
बाऊ जी नमस्ते!
आपके द्वारा बताया गया टोटका बड़ा काम आया! और यहाँ जोड़ दूं के ये कंट्रोल, शिफ्ट और + का जुगाड़ एक्स पी में भी काम करता है!
आप मनोज के ब्लॉग से इसलिए कॉपी नहीं कर पाए क्यूंकि हमारे कलम बाबू ने अपने पेज को प्रोटेक्ट कर रखा है!
और हां आपकी हिंदी पढ़ के सुख की अनुभूति हुई!
आशीष
कहानी पढ़ता गया और कुछ आँखों के सामने घूमता गया। एक सलाह कि कभी भी रेलगाड़ी के नीचे से न जायें, भले ही गाड़ी खड़ी हो। एक दो घटनायें देखी हैं, जिससे दिल दहल गया है।
ReplyDelete@डॉ मोनिका शर्मा
ReplyDelete@प्रवीण पाण्डेय
धन्यवाद. आते रहियेगा :)
@ASHISH
ReplyDeleteशब्दों का चयन करने की कोशिश भर की है, आपको कहानी अच्छी लगी, लगता है मेरी कोशिश कामयाब रही
@G Vishwanath
आपका बहुत शुक्रिया, आपने कहानी इतने गौर से पढ़ी और मेरी तुलना सलीम जावेद से कर दी, वैसे आपने कहानी का खाका चित्रपट पर खींच दिया है, अच्छी कहानी को अच्छा निर्देशक मिले तो एक छोटी सी कहानी भी ब्लोकबस्टर बन सकती है, जैसे सुभाष घई, जिन्होंने राम लखन को भी एक नया आयाम दे दिया. आप वो नज़र रखते हैं. क्या ख्याल है, चले मुम्बई ??!
कुछ टिप्स आपने शेयर किये, ज़रूर काम की चीज़ है, मैंने भी आज़माया है कई बार.
फिर से एक बार धन्यवाद.
रेगार्ड्स
मनोज खत्री
आपकी कहानी पढ़ ली है. इस बार आपने बहुत मेहनत से इसे संवारा है. इस पर कोई लम्बी टीका या क्लिष्ट टिप्पणी करने के स्थान पर कहना चाहूँगा कि कथ्य से भी शैली अधिक प्रभावी है. मुझे पसंद आई. बहुत बधाई.
ReplyDeleteaapka kathy shilp aakarshit karta hai..keep going!
ReplyDeleteएक लम्बी कहानी अपने आप को सच कहें तो शिल्प के सहारे निखार पाई है....लग रहा था आपका आज लिखने का मन नहीं कर रहा था ...और लिखें...... और पढ़ेंगे....शुभकामनाएं
ReplyDeleteअगला पोस्ट कब?
ReplyDelete८ दिन बीत गए हैं।
लिखा करो।
क्या हफ़्ते में कम से एक पोस्ट लिखने के लिए समय नहीं मिलता?
यदि दो बार लिखते तो और भी अच्छा।
कुछ लोग तो हर रोज कुछ न कुछ लिखते रहते हैं।
छोटा पोस्ट ही सही, पर नियमित रूप से लिखने वालों का ब्लॉग हमें ज्यादा पसन्द है।
जब यहाँ आकर देखता हूँ तो वही पुराना पोस्ट देखकर disaapoint हो जाता हूँ।
एक दो दिन के बाद फ़िर आउँगा।
आशा करता हूँ कुछ नया पढ़ने को मिल जाएगा।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
कहानी में एक प्रवाह है जो खुद में बांधे रखा है .बढ़िया लगी आपकी यह कहानी शुक्रिया
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteयहाँ भी पधारें:-
ईदगाह कहानी समीक्षा
aapka blog to bahut hi sundar hai, aur uspar se bhi achhi lagi aapki ek kahani...
ReplyDeleteblog follow kiye ja raha hoon..
yun hi likhte rahein..
intzaar rahega...
maza aa gaya...
@ g vishwanath ji...
ReplyDeleteaapka yeh ctrl-shift-+ (Ctrl/shift/plus sign) funda to bahut hi achha hai.... dukh hai ki ek engineer hone ke bawjood mujhe nahi pata tha....
bahut bahut dhanyawaad.........
पहले तो मैं आपका तहे दिल से शुक्रियादा करना चाहती हूँ मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिपण्णी देने के लिए! मेरे अन्य ब्लोगों पर भी आपका स्वागत है!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और प्रेरणादायक लेख लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
@किशोर जी
ReplyDelete@पारुल
@राजेश जी
आपको कहानी पसंद आई, धन्यवाद.
शिल्प, शैली और टेक्निकल डिटेल्स के बारे में तो नहीं जानता हूँ, पर हाँ कोशिश करता हूँ की पढ़ने वाले को कोई बोरियत नहीं हो.
मनोज
@रंजना जी, @सत्यप्रकाशजी @शेखर जी
ReplyDeleteधन्यवाद.
@ Babli
ReplyDeleteआप भी काफी अच्छा लिख लेती हैं और तसवीरें जो आप साझा करती हैं वह तो होती ही कमाल हैं.
आभार
मनोज खत्री
बहुत अच्छी कहानी ... पूरा द्रश्य आँखों के सामने घूम जाता है ....
ReplyDeletemaine itni badhiya kahani itni der se kyo padhi ?
ReplyDeletebahut prvah ke sath shjta liye prerk khani .
abhar
बहुत देर में आई आपके ब्लॉग पर । कहानी लंबी है पर प्रवाही है एक बार में ही आखिर तक पढ गई । कहानी में नाटकीयता दिखाने के लिये बेवजह गलत को सदा गलत ही नही दिखाया । आदमी सुधर भी सकता है ये विश्वास जगता है इस कहानी को पढ कर । लिखते रहिये, पढाते रहिये ।
ReplyDelete@क्षितिजा जी
ReplyDeleteकोशिश भर की है ..
@शोभना जी
कहानी को सादा रखना ठीक लगा इसलिए ज़्यादा बोलचाल नहीं रखी. कभी कभी हालात ही सब कुछ कह देते हैं.
@Mrs. Asha Joglekar
ब्लॉग पर आपका आना अच्छा लगा. कहानी होने को बहुत लंबी हो सकती थी पर उसको काट-छांट के छोटा किया जो यहाँ है..
आपके उत्साहवर्धन के लिए दिल से आभार. और ज़्यादा लिखना चाहता हूँ.. आप जैसे अच्छे और रुचिकर पाठक मिलें तो ज़्यादा लिखना अच्छा लगेगा.
मनोज खत्री
ऐसी सरल कहानी जो आम जीवन का चित्र खींचती है बहुत दिनों बाद पढ़ी है. बेहद अच्छी लगी.
ReplyDeleteAAj k samay me kisi pari katha si lagti h ye kahani..behad pasand aayi...
ReplyDeletemanoj, jab tum kuchh describe karte ho to , its good... bilkul aakhon ke saamne film chalti hai... lekin beech beech me jahan tum years jump kar rahe the, padhne ka kram bhi toot raha tha... waise positive kahani ke liye bahut tareef.
ReplyDeleteअंत भला सो भला!
ReplyDeleteबहुत सशक्त लेखनी है आपकी मित्र!
धन्यवाद, पूजा व मोनाली
ReplyDeleteनीरज, कहानी में अगर मूवमेंट ना हो तो शायद पढ़ने वाला बीच में छोड़ कर चला जाए.. धनयवाद.
@ज्ञानजी
आपके उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद.
Story is simple but presentation is beautiful.
ReplyDelete