करीम चा
कुछ दिन पहले ऍम आई रोड पर पुराना ऑटो देखा और यकायक ऑटो के नंबर देखते ही करीम चा की टोपी, खिचड़ी दाढ़ी और चश्मा याद आ गया। करीम चा, हमारे ऑटो वाले अंकलजी, जिनके ऑटो में हम स्कूल आया जाया करते, हम खूब धमाल करते, ब्रेडपकोडे की फरमाइश तो कभी सोफ्टी की फरमाइश। करीम चा कभी मना नहीं करते थे। हमेशा कहते तुम ही तो मेरे बच्चे हो। करीम चा के कोई संतान नहीं थी....
मैंने ऑटो के पास गाडी रोकी और कुछ कहने को हुआ तभी करीम चा बोले "कहाँ जाना है बाबूजी, सवारी कहाँ से लेनी है" मैंने कहा करीम चा पहचाना नहीं मैं मनोज, अरे आपके ऑटो में स्कूल जाता था, आँखों पर चश्मा मोटा हो चुका था, खिचड़ी दाढ़ी अब सफ़ेद और टोपी मटमैली हो चुकी थी । "अरे मनोज तू.... आ आप " "करीम चा क्या आप आप लगा रक्खी है, आपका बच्चा हूँ।" तभी पीछे लंबी एस यू वी पहुंची और लगा होर्न मारने, मानो गाडी के साथ सड़क भी खरीद ली थी, मैंने कार घुमा कर जी पी ओ में पार्क कर दी। और करीम चा के पास जाकर बोला "करीम चा ब्रेड पकोड़ा नहीं खिलाओगे?" "हाँ हाँ "और हम पास ही ठेले पर गए। मैंने कहा - "दो ब्रेड पकोडे देना, एक बिना चटनी," करीम चा बिना चटनी के खाते थे। करीम चा ब्रेड पकोडे को ऐसे देख रहे थे जैसे कभी देखा न हो।
तभी मेरा फोन बजा "सर वोह कोटा वाले माल का क्या करना है, ट्रांसपोर्ट में जाएगा या फिर फर्स्ट फ्लाईट वालों को गाडी के लिए बोलूँ, ब्रांच का नंबर नहीं सर मेरे पास " प्रदीप बोला। मैंने प्रदीप को नंबर दिया और थोडा डिटेल में समझाया माल के साथ क्या स्टेशनरी भेजनी है ..... इसी बातचीत में ठेले से थोडा दूर करीम चा के ऑटो के पास आ गया था.... ऑटो की हालत खस्ता थी, हूड जगह जगह से फटा हुआ था, टायर बिलकुल घीस चुके थे, पैंट कई जगह उखड़ा था और जंग की पपड़ियाँ जम हुई थी। मैंने कॉल डिसकनेक्ट किया और ठेले पर पहुंचा, ठेले वाला बोला - सर और कुछ दूँ। मैंने कहा - "नहीं" और पैसे देने लगा, तभी करीम चा बोले - "मनोज पैसे मैं देता हूँ। " मैंने ठेले वाले के हाथ में नोट पकडाया और करीम चा से कहा चलिए चाय पीते हैं। चाय के दौरान करीम चा अपनी कह रहे थे - "भैया तुम्हारी चाची अल्लाह को प्यारी हो गयी, कुछ ८-९ बरस हुए, अब खुद के लिए ही कमाते, खुद ही पकाते और खुद अकेले ही खाते।" और फीकी सी मुस्कान उनके चहरे पर तैर गयी।
"चाचा आजकल कौनसे स्कूल के बच्चों को ब्रेड पकोडे खिलते हो" मैंने कहा। "कहाँ मनोज भैया, इस उम्र में दीखता कम है और फिर बच्चों का बैग उठाओ और बार बार घरों के आगे ऑटो रोको, फिर ऊपर से टेम की बड़ी पाबंदी है.... कहीं ऑटो एक आध दिन खराब हो जाए तो माँ-बाप जल्दी ही बच्चों को किसी और ऑटो में भेजने लगते हैं।" मैंने कहा - "चलो अच्छा है खुले में चलते हो करीम चा सवारियां बहुत मिल जाती होगी "
"हाँ मेरा गुज़ारा हो जाता है, लेकिन आजकल यह कार टैक्सी वाले मुए बड़े चल पड़े हैं, फोन करो और ५ मिनट में आपके पास, इधर ऑटो भी डिज़ल एल पी जी के चल गए हैं, सवारी मोल भाव करती है, कहते हैं डीज़ल वाला ऑटो बड़ा होता है, आराम से बैठेंगे, तेज चलता है, जल्दी पहुंचेंगे, पेट्रोल के ऑटो में तो अब कमाई रही नहीं।"
"करीम चा नया ऑटो क्यों नहीं लेते "
"तुम्हारी चाची के इलाज में बहुत पैसा लगाया भैया, गाँठ का भी गया और इधर उधर से उधार लिया सो अलग, बड़ी मुश्किल से चुकाया है भैया, एक कलम तो अभी तक बाकी है, देखो कब निपटती है...."
एक महिला करीम चा के ऑटो के पास पहुंची और इधर उधर देखने लगी, करीम चा उलटे बैठे थे "करीम चा कोई सवारी लगती है, देखना ज़रा" करीम चा उठे और अपनी कमर झुकाए लगभग भागते से पहुंचे, मैं उन लोगो की बातें तो नहीं सुन पाया, पर महिला जल्दी में थी और उसे शायद कोई सवारी नहीं मिल रही थी, इसलिए शायद करीम चा ने जितने पैसे मांगे वह मान गयी और करीम चा चल पड़े.....
मैं ऑटो को जाते हुए देख रहा था पीछे कई एक जैसे स्टिकर चिपके हुए थे। बड़े बड़े शब्दों में लिखा हुआ था 'अंग्रेजी सीखिए ९० घंटों में ', शायद हूड का रग्जिन फटा होगा और उसे और उधड़ने से बचाने के लिए करीम चा ने कई स्टिकर एक साथ चिपका दिए थे। इधर मोबाइल फिर बज रहा था, प्रदीप का नाम स्क्रीन पर था.... मेरा ध्यान ऑटो पर .....
सुबह सुबह सड़कों पर जो ट्रेफिक होता है उनमे शायद सबसे ज़्यादा ऑटो रिक्शा ही होते होंगे। लेकिन इस ट्रेफिक में करीम चा का ऑटो नहीं है। करीम चा की उम्र लगभग ६५ साल होगी, अभी भी उनका ऑटो चलाना जारी है। संतान नहीं होने के कारण खुद ही अपना सहारा बने हुए हैं। मोबाइल नहीं है, खर्चा नहीं उठा पाते होंगे शायद, लेकिन जी पी ओ टैक्सी स्टैंड के पास ब्रेड पकोडे वाले के नम्बर मैंने ले लिए थे ताकि कभी कभार करीम चा के हाल चाल पूछ सकूँ या फिर उधर से निकलूँ तो उनके साथ एक ब्रेड पकोड़ा ही खा लूं.....
मैंने ऑटो के पास गाडी रोकी और कुछ कहने को हुआ तभी करीम चा बोले "कहाँ जाना है बाबूजी, सवारी कहाँ से लेनी है" मैंने कहा करीम चा पहचाना नहीं मैं मनोज, अरे आपके ऑटो में स्कूल जाता था, आँखों पर चश्मा मोटा हो चुका था, खिचड़ी दाढ़ी अब सफ़ेद और टोपी मटमैली हो चुकी थी । "अरे मनोज तू.... आ आप " "करीम चा क्या आप आप लगा रक्खी है, आपका बच्चा हूँ।" तभी पीछे लंबी एस यू वी पहुंची और लगा होर्न मारने, मानो गाडी के साथ सड़क भी खरीद ली थी, मैंने कार घुमा कर जी पी ओ में पार्क कर दी। और करीम चा के पास जाकर बोला "करीम चा ब्रेड पकोड़ा नहीं खिलाओगे?" "हाँ हाँ "और हम पास ही ठेले पर गए। मैंने कहा - "दो ब्रेड पकोडे देना, एक बिना चटनी," करीम चा बिना चटनी के खाते थे। करीम चा ब्रेड पकोडे को ऐसे देख रहे थे जैसे कभी देखा न हो।
तभी मेरा फोन बजा "सर वोह कोटा वाले माल का क्या करना है, ट्रांसपोर्ट में जाएगा या फिर फर्स्ट फ्लाईट वालों को गाडी के लिए बोलूँ, ब्रांच का नंबर नहीं सर मेरे पास " प्रदीप बोला। मैंने प्रदीप को नंबर दिया और थोडा डिटेल में समझाया माल के साथ क्या स्टेशनरी भेजनी है ..... इसी बातचीत में ठेले से थोडा दूर करीम चा के ऑटो के पास आ गया था.... ऑटो की हालत खस्ता थी, हूड जगह जगह से फटा हुआ था, टायर बिलकुल घीस चुके थे, पैंट कई जगह उखड़ा था और जंग की पपड़ियाँ जम हुई थी। मैंने कॉल डिसकनेक्ट किया और ठेले पर पहुंचा, ठेले वाला बोला - सर और कुछ दूँ। मैंने कहा - "नहीं" और पैसे देने लगा, तभी करीम चा बोले - "मनोज पैसे मैं देता हूँ। " मैंने ठेले वाले के हाथ में नोट पकडाया और करीम चा से कहा चलिए चाय पीते हैं। चाय के दौरान करीम चा अपनी कह रहे थे - "भैया तुम्हारी चाची अल्लाह को प्यारी हो गयी, कुछ ८-९ बरस हुए, अब खुद के लिए ही कमाते, खुद ही पकाते और खुद अकेले ही खाते।" और फीकी सी मुस्कान उनके चहरे पर तैर गयी।
"चाचा आजकल कौनसे स्कूल के बच्चों को ब्रेड पकोडे खिलते हो" मैंने कहा। "कहाँ मनोज भैया, इस उम्र में दीखता कम है और फिर बच्चों का बैग उठाओ और बार बार घरों के आगे ऑटो रोको, फिर ऊपर से टेम की बड़ी पाबंदी है.... कहीं ऑटो एक आध दिन खराब हो जाए तो माँ-बाप जल्दी ही बच्चों को किसी और ऑटो में भेजने लगते हैं।" मैंने कहा - "चलो अच्छा है खुले में चलते हो करीम चा सवारियां बहुत मिल जाती होगी "
"हाँ मेरा गुज़ारा हो जाता है, लेकिन आजकल यह कार टैक्सी वाले मुए बड़े चल पड़े हैं, फोन करो और ५ मिनट में आपके पास, इधर ऑटो भी डिज़ल एल पी जी के चल गए हैं, सवारी मोल भाव करती है, कहते हैं डीज़ल वाला ऑटो बड़ा होता है, आराम से बैठेंगे, तेज चलता है, जल्दी पहुंचेंगे, पेट्रोल के ऑटो में तो अब कमाई रही नहीं।"
"करीम चा नया ऑटो क्यों नहीं लेते "
"तुम्हारी चाची के इलाज में बहुत पैसा लगाया भैया, गाँठ का भी गया और इधर उधर से उधार लिया सो अलग, बड़ी मुश्किल से चुकाया है भैया, एक कलम तो अभी तक बाकी है, देखो कब निपटती है...."
एक महिला करीम चा के ऑटो के पास पहुंची और इधर उधर देखने लगी, करीम चा उलटे बैठे थे "करीम चा कोई सवारी लगती है, देखना ज़रा" करीम चा उठे और अपनी कमर झुकाए लगभग भागते से पहुंचे, मैं उन लोगो की बातें तो नहीं सुन पाया, पर महिला जल्दी में थी और उसे शायद कोई सवारी नहीं मिल रही थी, इसलिए शायद करीम चा ने जितने पैसे मांगे वह मान गयी और करीम चा चल पड़े.....
मैं ऑटो को जाते हुए देख रहा था पीछे कई एक जैसे स्टिकर चिपके हुए थे। बड़े बड़े शब्दों में लिखा हुआ था 'अंग्रेजी सीखिए ९० घंटों में ', शायद हूड का रग्जिन फटा होगा और उसे और उधड़ने से बचाने के लिए करीम चा ने कई स्टिकर एक साथ चिपका दिए थे। इधर मोबाइल फिर बज रहा था, प्रदीप का नाम स्क्रीन पर था.... मेरा ध्यान ऑटो पर .....
सुबह सुबह सड़कों पर जो ट्रेफिक होता है उनमे शायद सबसे ज़्यादा ऑटो रिक्शा ही होते होंगे। लेकिन इस ट्रेफिक में करीम चा का ऑटो नहीं है। करीम चा की उम्र लगभग ६५ साल होगी, अभी भी उनका ऑटो चलाना जारी है। संतान नहीं होने के कारण खुद ही अपना सहारा बने हुए हैं। मोबाइल नहीं है, खर्चा नहीं उठा पाते होंगे शायद, लेकिन जी पी ओ टैक्सी स्टैंड के पास ब्रेड पकोडे वाले के नम्बर मैंने ले लिए थे ताकि कभी कभार करीम चा के हाल चाल पूछ सकूँ या फिर उधर से निकलूँ तो उनके साथ एक ब्रेड पकोड़ा ही खा लूं.....
toucy....... kitne bacche yad rakhte hain aise bade hone k bad apne auto ya rikshaw wale ko....
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आपको बहुत बहुत बधाई .कृपया हम उन कारणों को न उभरने दें जो परतंत्रता के लिए ज़िम्मेदार है . जय-हिंद
ReplyDeleteकमाल है मनोज....
ReplyDeleteये सभी के साथ होता है! हम रिक्शे में जाया करते थे, हाफ पैंट पहन के! गफ्फार भाई साहब के रिक्शे में!
जब हम फुल पैंट पहन ने लगे तो 'तू', 'आप' बन गया!
अच्छा लिखते हो गुरु!
काश मैं भी लिख पाता.... तो अपने वाहियात एक्सपेरिमेंट्स के बारे में ना लिख कर किस्से-कहानियां लिखता!
सरल और सहज प्रवाह के साथ चलती है करीम चा की दास्तान.बढ़िया भाई.बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteरिक्शे में कभी स्कूल नहीं जाना हुआ
ReplyDeleteछोटा सा क़स्बा है इसमें पहले पैदल और फिर सायकिल से स्कूल का रास्ता नापा मगर मनोज जी, एक शंकर सिन्धी थे हमसे उम्र में कोई दस साल बड़े बरफ का ठेला लगाते थे स्कूल के आगे और बाकी दिनों में चूरण की खट्टी गोलिया बेचा करते. उनसे बहुत सालो तक वास्ता रहा मगर वे भी दो महीने पहले दुनिया छोड़ गए हैं. ऐसी स्मृतियां बड़ी गहरी होती है.
करीम चा से मिलते रहिये.
दिल को छू लेने वाला संस्मरण |कितने की करीम चा तथाकथित विकास की दौड़ में पीछे छूट गये है कितु वास्तव में उन्होंने ही कितने लोगो को अपने प्यार से सींच कर मंजिल तक तक पहुंचाया |
ReplyDeleteआप उनका हल समाचार ले रहे है यही मानवता है |
@ संजीत जी..
ReplyDeleteआप पहली बार आयें हैं. आपका स्वागत है.. आते रहियेगा और ऐसे ही उत्साह बढ़ाते रहियेगा.
@अशोक बजाज
ReplyDeleteस्वाधीनता दिवस की आपको भी बधाई.
@संजय भाई सा
ReplyDeleteजीवन में ऐसे कई छोटे वाकये छूट जाते हैं, अगर मैं ऑटो के नम्बर देखकर रुकता नहीं तो मालूम नहीं चलता करीम चा अब कैसे हैं और क्या कर रहें हैं..
आपने समय निकाला. बहुत धन्यवाद
रिगार्ड्स, मनोज
@ किशोरजी
ReplyDeleteकरीम चा से मिलने के बाद वहीँ कुछ देर बैठा रहा, इसी सोच में की शायद वह स्टैंड पर वापस आयें..
बुधवार को उधर जाऊँगा तब उनसे मिलकर आऊँगा अगर स्टैंड पर हुए तो..
आपके अनमोल समय के लिए धन्यवाद.
मनोज खत्री
@शोभनाजी
ReplyDeleteआभार
ऐसे ही गाइड करते रहियेगा.
रिगार्ड्स
मनोज खत्री
@ आशीष / ASHISH
ReplyDeleteअजी मैं कोई गुरु नहीं, मेरे साथ जो हुआ उसका सीधा और सच्चा वर्णन है... इसमें कोई साहित्य नहीं
हाँ लेकिन आप जो लिखते हैं वोह ज़रूर तारीफ-ए-काबिल है. जनाब आपके एक्सपेरिमेंट कहीं भी वाहियात नहीं..
ब्लॉग पर आने का शुक्रिया.
आप जैसे मित्रों की वजह से अभी तक ब्लॉग्गिंग में हूँ वर्ना कभी का टाटा कह चुका होता...
मनोज खत्री
bahut badhiya..
ReplyDeletei would say the most sentimental among all ur posts. bachpan mein jin logon ne hum par pyaar barsaaya hota hai unki chhavi dil mein humesha kaayam rehti hai..kareem cha ki tarah.
apni yaadon ko badi sundarta se ukera hai..so touchy!
ReplyDelete@नियति जी
ReplyDeleteआपका आगमन बड़ा सुखद है. हम तो कबसे इन्तेज़ार कर रहे थे. भई सिर्फ कमेन्ट से काम नहीं चलेगा, आपको भी कुछ लिखना पड़ेगा.. हमें पता है आप काफी समय इन्टरनेट पर होती हैं.
प्रशंसा के लिए धन्यवाद.
यह बिल्कुल ठीक है की जिन लोगों ने हमें निश्चल प्रेम दिया उन्हें हम सिर्फ 'टेकन फॉर ग्रांटेड' लेते हैं. शायद हमें भी फिर लोग ऐसे ही टेकन फॉर ग्रांटेड लेने लगे. जहाँ तक हो सके उन सब लोगों से संपर्क में रहने की कोशिश करता हूँ, जो मुझे इस छोटे से जीवन में प्रेम करते थे/हैं.
आभार
मनोज खत्री
@पारुल जी
ReplyDeleteआप पहली बार ब्लॉग पर आईं हैं, बहुत आभार. यादों का पिटारा बहुत बड़ा है, ऐसे ही धीरे धीरे खुलता रहेगा.
आप सब लोगों का साथ रहे, यही कामना है.
आभार
मनोज खत्री
मनोज जी ...बहुत अच्छा लगा...करीम चाचा..सब के जीवन से जुड़े हैं...किसी ना किसी रूप में...उन्हें व्यक्त कर देना आपने ज़रूरी समझा...यही सबके लिए ज़रूरी है...अक्सर जिसे ग़ैर ज़रूरी समझा जाता है...उन लम्हों को जज़्बात ही ज़रूरी बना पाते हैं...आपका ये शैली-गत प्रवाह बना रहे...और भीतर सम्वेदनशीलता...फ़ेसबुक के माध्यम से अपने ब्लॉग पर लाने का शुक्रिया...अनवरत मिलता रहूंगा
ReplyDelete@राजेशजी
ReplyDeleteहुज़ूर, शुक्रिया..
करीम चा जैसे कई छोटी शक्सियतें हमारे सब के जीवन में हैं, पर शायद इस अंधी दौड़ में जज़्बात कहीं पीछे छूट गए हैं..
आपका आना अच्छा लगा. आभार
मनोज खत्री
एक बुजुर्ग ऑटो वाले के लिए इतनी हमदर्दी रखना दर्शाता है ...आपके अन्दर छिपी मानवता को ....इसे यूँ ही बनाये रखें .....यही कर्म हैं जो साथ जाते हैं ....
ReplyDeleteशुभकामनाएं .........!!
@ हरकीरत 'हीर'
ReplyDeleteआप पहली बार ब्लॉग पर आयीं है, आपका स्वागत करता हूँ.
दवा बनाने वाली एक कंपनी में काम करता हूँ इसीलिए शायद हर दुखी और रोगी से एक आत्मीय रिश्ता जुड़ा
महसूस करता हूँ . अगर वह व्यक्ति कोई परिचित है तो यह जुडाव मेरा कर्तव्य बन जाता है.
ब्लॉग पर फिर पधारें.
आभार
मनोज खत्री
एक बुजुर्ग ऑटोवाले के लिए इतनी हमदर्दी , मानना होगा कि आपने अपने अंदर की संवेदनाओं को अभी तक मरने नहीं दिया है।
ReplyDeleteअच्छा लगा कि आज भी हमारे बीच में आपके जैसे लोग हैं।
@neelimaji
ReplyDeleteब्लॉग पर आपका स्वागत है.
कोई इसे संवेदना कहता है कोई हमदर्दी कुछ इसे बचपना भी... मैं बच्चा होकर भी खुश हूँ.
आपका आना अच्छा लगा , फिर पधारियेगा.
मनोज
मनोज जी, यही है सही मायने में सार्थक ब्लॉगिंग!
ReplyDeleteअपनी सम्वेदनायें और सेंसिटिविटी हम अपने में ही समेटे रहते हैं; पर ब्लॉगिंग उसे इन्द्रधनुष की तरह बिखेरती है।
हर सहृदय के पास करीम चा हैं। पर सबके पास आपसी कलम नहीं है!
पाण्डे जी के ब्लॉग से यहाँ आया। पढकर अच्छा लगा! शायद आपको भी जावेद मामू से मिलना अच्छा लगे।
ReplyDeletebhai, ees blog ko padhne kee baad mujhe laga tum unhi karim cha see mile joo mujhe bhi auto mein st soilder school lee jaya karte thee. Tumhare saral hridaya aur tumhar hindi bhasha par pakad dekha kar bahut garv hua. :)
ReplyDeleteRitesh Dugar
थैंक्स रितेश
ReplyDeleteIts nice n touchy...
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