छिलके
रेतीले टीलों के बीच बसा एक छोटा शहर. उसी शहर के रेल्वे प्लेटफोर्म पर शाम सात पचास की ट्रेन का इंतज़ार, शाम घिर आयी थी, आसमान में धूसर रंगों से मानो चित्रकारी सी हुई. हवा अपना रुख बदल नहीं रही थी, लड़के का मन प्लेटफोर्म और ट्रेन दोनों में ही नहीं था. उसकी बर्थ कन्फर्म थी, उसे दिल्ली जाना था, अपने घर वालों और पुराने दोस्तों से मिलने. इस छोटे शहर में सुकून है, नौकरी भी ठीक चल रही है पर कुछ छूट रहा है. लड़का इसी उधेड़बुन में प्लेटफोर्म पर चहलकदमी करने लगता है..
प्लेटफोर्म के पीछे बने हुए स्टाफ़ क्वार्टर्स, कमोबेश एक ही जैसे बने हुए, कोई बदलाव नहीं, शायद जैसे महकमे ने बनाकर सौंपे वैसे ही. पता नहीं क्यों रेल्वे पटरी के पास इन क्वार्टर्स को बना देता है, वह भी हर स्टेशन पर एक जैसे, क्या इस डिपार्टमेंट के एन्जिनीअर्स को बोरियत नहीं होती..... क्वार्टर्स के आगे खुली जगह, लगभग १० मीटर या उससे भी ज़्यादा और फिर रेल्वे प्लेटफोर्म. खुली जगह में कोई पौधा या घास नहीं उगी हुई.. लेकिन अभी अभी बुहार कर नीम के सूखे पत्तों को एक कोने में इक्कठा किया हुआ. ऐसे ही एक क्वार्टर के दरवाज़े के बाहर एक महिला, थोड़ी दूर पर बैठा वृद्ध शायद उसका ससुर हो, इसलिए पल्लू से चेहरा छिपाए हुए है, हवा ने उसके चेहरे पर से उसके ओढ़ने का पल्लू उठा दिया. लड़का जो अभी तक हाथ बाँध कर खड़ा था एकाएक चौंक गया उसने प्लेटफोर्म की रेलिंग पर हाथ टिका दिए, यह वह तो नहीं है, कतई नहीं है... इसकी शक्ल ... मानो वही बैठी हुई है. उसका पूरा ध्यान उस लड़की पर ठहर गया, हाथों में चूडियाँ, पालथी मारकर बैठी हुई, तुरई के तीखे उभारों पर से उसके पतले छिलके छीलती हुई. ..
प्लेटफोर्म पर ट्रेन धीरे धीरे सरक रही है, लड़के ने अपना कोच देख लिया है. ट्रेन में सवार होने के बाद उसे अपना ऑफिस और वह याद हो आयी. ए सी कोच में उसे हल्की हरारत महसूस हुई. वह ओढ़ने वाली लड़की हेमा ही तो है और वह बुहारा हुआ पत्तों का ढेर उसके दिन और रातें जिनको जितना भी बुहारो, सुबह फिर से वहीँ पड़े मिलते हैं. और यह ज़िंदगी उस तुरई जैसी जिसे वह हमेशा से छीलती रही कुछ मुलायम और कुछ साफ़ ढूंढती रही और ज़िन्दगी के बरस ठीक वैसे ही हैं जैसे की रेल्वे के मकान, हुबहू एक जैसे.
लड़के की पेशानी पर पसीने की बूंदे साफ़ नज़र आ रही है, दिल्ली सुबह दस बजे आएगा और हेमा का ऑफिस जाने में डेढ़ घंटा लगेगा, सामान क्लोक रूम में छोड़ा जा सकता है.. हाँ यह ठीक रहेगा.. वह उस नीम की तरह नहीं होगा जो उस स्टाफ क्वार्टर के सामने ज़मीन से थोड़ा ऊपर आते ही दो हिस्सों में बंट गया...
जगह बदलती हैं, भाव नहीं..
ReplyDeletebahut khoob... classic kahani lag rahi hai...
ReplyDeleteRead it twice.
ReplyDeleteCouldn't understand.
Will try again tomorrow with a fresh mind.
Feeling tired and sleepy now.
It's past 11 pm.
Good night
Regards
GV
मनोज भाई - वास्तव विश्वनाथ जी ने इमानदारी से कमेंट्स किया है...
ReplyDeleteपोस्ट मेरे उपरी माले से उपर निकल रही है.
bahut kam shabdon aur ghare bhavon men bahut kuch kahti hai yh dilchasb kahani...
ReplyDeleteएक बात बताओ कहानी पहले लिखी या फ़ोटो पहले लगाया. फोटो देखकर कहानी लिखी या कहानी लिख कर फ़ोटो ढूँढा. एक सिक्के के दोनों पहलु से है कहानी और दिया गया फ़ोटो. लड़का सामान रखकर क्या उससे मिलने चल दिया हेमा के ऑफिस? बुढा कौन है हेमा का? लड़का हेमा को ले गया साथ? कितना कुछ अनबोला छोड़ दिया तुमने जैसे !!!
ReplyDeleteफोटो मिल ही जाते हैं नेट पर..
Deleteलड़का सामन रखकर हेमा के ऑफिस ही गया. जो औरत सब्जी साफ़ कर रही थी, वह हेमा नहीं थी, लड़के को उसे देखकर हेमा की याद हो आई या यूँ कहें की हेमा उसके दिल-ओ-दिमाग में रची बसी थी.
वह वृद्ध उस सब्जी साफ़ करती औरत का ससुर है...
अंत अनबोला नहीं है...सब कुछ कह रहा है !!
जिंदगी के बरस ठीक वैसे है जैसे रेलवे के मकान ..हुबहू एक जैसे ..
ReplyDeleteधूम फिर कर बात जिंदगी पर आकर टिक जाती है ...जिंदगी के अच्छे-बुरे दिन अक्सर साथ-साथ चलते रहते हैं
बहुत सुन्दर जीवंत संस्मरण ..आँखों के सामने से गुजरता हुआ ..
Nice --- :)
ReplyDeleteभाषा अच्छी है आपकी ....
ReplyDeleteकहानी की शुरुआत अच्छी लगी ....
शुक्रिया !
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