बरामदे
यूँ तो गाँव आना महेश को बहुत भाता है, पर अपनी नौकरी के चलते साल में एक ही बार आना हो पाता. पढ़ाई खत्म होने तक साल में तीन या चार बार गाँव हो आता. बी.ए. करने के बाद एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में क्लर्क की नौकरी मिल गयी. तनख्वाह ज़्यादा नहीं थी पर गुज़ारे लायक काफी थी. गाँव का रास्ता १० घंटे का था पर दो जगह बस बदलनी होती और फिर बस अड्डे से पैदल ३ किलोमीटर. गाँव में पिताजी की ४ बीघा ज़मीन है जो उन्होंने बटाई पर दे रखी है, स्वयं एक परचून की दुकान चलाते हैं आस पास के ढाणियों से लोग उनसे सामान खरीदने आते और घंटों उनसे बतियाते. असल में इस गाँव में घर के आगे एक कमरे को दुकान का रूप दिया होता है और बाहर एक बड़ा बरामदा होता है. यह दुकान सिर्फ़ परचून की नहीं होकर नेसेसिटी स्टोर थी, दुकान में दैनिक ज़रूरतों का सामान के अलावा कपडे मसलन धोती, कुर्ते का कपड़ा, बनियान, चप्पल और भी कई चीज़ें होती, महेश जब गाँव में दुकान पर बैठता तो उसे कई बार आश्चर्य होता, भईसा दुकान में क्या क्या सामान रखतें हैं. महेश अपने पिताजी को भईसा कहता और माँ को बाई.
महेश ने पांचवी तक गाँव में पढाई की और फिर शहर जाकर आगे की पढाई जारी रखी. महेश के पिताजी बनवारीलाल खुद मेट्रिक पास थे और पढाई का महत्त्व जानते थे. शहर में समाज के ही एक हॉस्टल में महेश ने एक कमरा ले लिया था, उस हॉस्टल में समाज के विद्यार्थियों को मुफ्त रहवास मिलता था. एक ग्रामीण निम्न माध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाले लड़के के लिए ठीक था.
गाँव में साथ खेले और बड़े हुए उसके बचपन के साथी सब इधर उधर थे, कोई कहीं दूर नौकरी करता था या फिर खेती बाड़ी में मशगूल था. गाँव पहुँचने पर दुकान पर बैठना और भईसा और वहाँ आने वालों लोगों की बातें सुनना यही महेश की दिनचर्या का हिस्सा हुआ करते. शाम ढलते वह दुकान के आगे चौड़े मैदान में नंगे पैर ही टहलने लगता, ठंडी रेत उसके पैरों से होती हुई उसके दिल तक तो शीतल करती. शाम को ही बाई खाना बना देती और सात बजते बजते घर के सब लोग खाना खा चुके होते. छोटी बहिन रुकमा बाई का हाथ बँटाती और खाना खाने के बाद अंदर कमरे में जाकर पढाई करती, छोटा भाई राकेश बस स्टैंड के पास घड़ियों की दुकान करता था, आखिरी बस के निकलने के बाद ही वह घर आता था, उसे आते आते साढ़े नौ बज जाते थे.
खाना खाने के बाद बरामदे में गाँव के गणमान्य व्यक्ति जमा होते, महेश जब भी घर पर होता, खाने के बाद खुद ही बरामदे में जाजम* बिछाता. सरपंच साहब भी कई बार वहाँ आते, गाँव के आईदान जी, जो की अघोषित नगर सेठ थे, उनकी भी आमद रोज़ ही हुआ करती, ऐसा माना जाता है की गाँव के दोनों तरफ खड़ा होकर अगर गाँव की विपरीत दिशा में देखा जाए तो जहाँ तक नज़र जाती सारी ज़मीन आईदानजी की ही थी, आज भी बुवाई के समय खुद काम पर लगते, उनकी मौसम और फसलों की बिमारियों की जानकारी लाजवाब थी, कई गाँव के लोग उनसे मशविरा लेने आया करते. हाजी साहब भी लगभग रोज़ ही आते, उनके ४ बेटों का ट्रोली बनाने का कारखाना था. सब लोग भईसा की इज्ज़त करते थे. महेश जब स्कूल में था तो उसे पता नहीं था पर बढती उम्र ने उसकी जिज्ञासाओं का उत्तर दिया. बनवारीलाल गाँव के पहले मेट्रिक पास थे और अपनी अंग्रेजी और सरकारी कामकाज की जानकारी के चलते ही सब लोग उनकी इज्जत किया करते. सम्मान इस बात को लेकर भी था कि बनवारी ने अपना गाँव और अपनी ज़मीन नहीं छोड़ी.
इस मैदान के एक तरफ महेश के भईसा बनवारी की दुकान थी और मैदान के गिर्द मकानों में दुकानें तो नहीं थी पर बरामदे हर घर में थे, जहाँ सुबह शाम बुज़ुर्ग बैठा करते और आते जाते लोगों से दुआ सलाम हुआ करती. महेश को यह बात बहुत अच्छी लगती, शहर में तो बस लोग अपने घरों में बंद रहते और कई कई दिन तक सूरत नहीं दिखती थी.
महेश को अपनी ईमानदारी और लगन की वजह से ट्रांसपोर्ट कंपनी का मैनेजर बना दिया गया, कंपनी ने दो कमरे का मकान भी महेश को दिया. बनवारी लाल ने बहुत धूम धाम से महेश की शादी की और शादी के २ वर्ष बाद महेश के साथ बहू को शहर भेज दिया. बहू मीना तो वैसे भी छोटे गाँव से आई थी, उसे शहर से डर लगता, पर बाई और रुकमा की मान मनुहार के बाद उसने शहर जाने की हामी भरी. छोटे बच्चे और मीना को लेकर महेश शहर के दो कमरे के मकान में रहने लगा. महेश बहुत व्यस्त रहता और मीना के कहने के बावजूद गाँव नहीं जा पाता. उसे गाँव गए कई वर्ष बीत गए, महेश का बेटा आयुष बहुत बार ज़िद करता पर अपनी व्यस्तता के चलते महेश विवश था. २-४ बार भईसा शहर दुकान के लिए माल खरीदने आये तो महेश के घर आये. एक बार उन्होंने महेश से कहा भी “घर तो तेरा चोखा है पर आगे बरामदा नहीं है”
एक बार आयुष की गर्मी की छुट्टियों में मीना के भाई अपनी बहन और भांजे को लेने आया. जाते जाते मीना ने कह दिया, मैं सीधे बाई-भईसा के पास जाउंगी, आप वहीँ मुझे लेने आना. आयुष ने भी कह दिया – दादाजी के पास रहूँगा. महेश ने भी सोचा चलो इस बहाने गाँव हों आऊंगा.
कोई महीने भर बाद ट्रांसपोर्ट कंपनी पर राकेश का फोन आया “भैया भाभी ने कहा है हफ्ते भर में आयुष का स्कूल खुल जाएगा, आप समय निकाल कर उन्हें ले जाओगे, या फिर मैं भाभी और आयुष को छोड़ने आऊं.” महेश ने कहा २ दिन बाद वह गाँव पहुँच जाएगा.
महेश चल पड़ा गाँव की ओर, जैसे ही बस स्टैंड पर उतरा तो वहाँ की रौनक देखकर लगा अभी शहर में ही है, राकेश ने भी घड़ियों का काम बंद करके मोबाइल और रिचार्ज का धंधा शुरू कर दिया, कोल्ड ड्रिंक बेचने वाले बड़ी बड़ी मशीनों से ग्राहकों को रंग बिरंगे पेय बेच रहे थे. उसे एकाएक लगा वह अपने ऑफिस के बाहर मज़दूर चौकड़ी पर खड़ा है. तभी वहाँ राकेश का मित्र चंदू चमचमाती मोटरसाइकिल पर आया और कुछ ही मिनटों में महेश को घर छोड़ दिया. बस स्टैंड से घर तक की सड़क कंक्रीट की बन गई थी, दुकान के बाहर भी अब रेत की बजाए कंक्रीट की ही सड़क थी. घर पहुँचते ही आयुष पापा पापा कहते महेश से लिपट गया. बनवारी जी महेश को देख गदगद हुए. बाई ने तो पहले से शीरा और पूड़ी की तैयारी कर ली थी. भोजन करने के बाद महेश कुछ देर सुस्ताया पर कुछ ही देर बाद उसकी आँख खुली पास वाले घर से आते कान फाडू संगीत की आवाज़ से. उसने मुहं पर पानी के छींटे मारे और भईसा के पास दुकान पर जाकर बैठा. उसने देखा दुकान में सामान अब बहुत कम है, बच्चों की किस्म किस्म की टॉफी और सिगरेट गुटके के अलावा कुछ किराने के सामान के अलावा कुछ खास नहीं था. “भईसा कपड़े लत्ते नहीं रखते अब ?” “अरे कहाँ भाई, अब लोग रेडीमेड ज़्यादा पहनते हैं, कुर्ते धोती वाले बस स्टैंड पर से विदेशियों वाले कपड़े खरीदते हैं” महेश आगे कुछ खास बात नहीं कर पाया और शाम ढलते ढलते बरामदे के बाहर नंगे पांव निकल पड़ा पर दो कदम बाद ही उसे जलती सड़क ने पीछे खदेड़ दिया. उसे लगा उसकी ज़मीन अब उसकी नहीं रही.
शाम को खाना खाने के बाद महेश ने जाजम बिछाई तो भईसा कहने लगे “अब ज़्यादा मिनख* नहीं आते ” महेश ने भी देखा, गाँव के ही कुछ लड़के मोटरसाईकिलों पर आते और सिगरेट गुटका खरीदकर चलते बनते, पड़ोस के नाथूजी आज महेश से देर तक बतिया रहे थे. उन्होंने बताया आईदानजी की मृत्यु के बाद उनके सारे बच्चे शहर जाकर रहने लगे और यहाँ खेतों को मुनीमों के भरोसे छोड़ दिया. हाजी साहब भी अब घर से कम निकलते हैं, बस स्टैंड पर उनको सड़क पार करते हुए किसी ने अपनी नयी स्कोर्पियो जीप से टक्कर मारी तब से एक टांग से लंगड़ा कर चलते हैं.
लोगों को आजकल आपस में बात करने की बजाए टी.वी. देखना ज़्यादा भा रहा है. हर घर में छतरी लग गयी है. मोबाइल एक आदमी के पास २-३ हैं. इन्हीं सब बातों के बीच महेश देख रहा था ४० वाट के बल्ब की रोशनी में भईसा दूर किसी चीज़ पर अपनी नज़र गडाए ठोड़ी पर हाथ रखकर बैठे थे कहने लगे “इन बरामदों में अब कोई बड़ा बुज़ुर्ग नहीं दीखता, सिर्फ़ दोपहर को औरतें टी.वी. पर आये नाटकों की बातें करती दिखती हैं”
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*जाजम – दरी
*मिनख – लोग
Beautifully written !
ReplyDeleteपढ कर कहानी मन बहुत सोच मे पढ गया, इस से अच्छा तो पुराना जमाना ही था, कम से कम लोगो मे प्यार तो था,बहुत सुदर कहानी जी,धन्यवाद
ReplyDeletetoo good..
ReplyDeletebadli badli si har gali nazar aati hai
badli sakdon par chalte log badal jaate hain
शहरों के साथ साथ गाँव के लोगों में दूरियां आ गयी हैं..... आपने जो लिखा है मैंने खुद वैसा ही देखा भी है..... जीवंत लेखन ....
ReplyDeleteसब कुछ नया ही हो गया है, अब पुराने का मोह जाग रहा है।
ReplyDeleteहर रोज हम इस बारे में बात करते हैं कि कैसे सबकुछ बदल गया, गाँव में भी और शहर में भी. लेकिन इंसानी फितरत ही बदल जाना है. इंसानी फितरत पुराने के नहीं होने के बाद उसे जी भर कर याद करना भी है. वाकई अच्छी कहानी. "याद आ जाना" बहुत छोटा सा हिस्सा है इस कहानी की प्रतिक्रिया के रूप में.
ReplyDeleteबढ़िया फ्लो में लिखी है |
ReplyDeleteआपकी लेखन शैली अच्छी है ....
ReplyDeleteभाषा और शब्दों पर भी अच्छी पकड़ है ....
जाजम और मिनख जैसे देशज शब्दों से कहानी का सौन्दर्य बढ़ा है ....
काफी उम्मीदें हैं आपसे ....
यह सब घटित हो रहा है। दीखता है भोंडा सा और महसूस होता है खुरदरा सा। कुछा था जो गायब होता जा रहा है और जो आ रहा है, कुरूप है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कहानी ..
ReplyDeleteबहुत सुदर कहानी| धन्यवाद|
ReplyDeleteतेजी से बदलते वक्त को , गाँवो के अधकचरे विकास को बेहतरीन तरीके से व्यक्त करती हुई अच्छी कहानी |
ReplyDeletebahut hi sundar v-sajiv chitran .
ReplyDeletebadi khoobsurati ke saath apne gaon ko shhari parivesh me dhlte dikhya hai.
ek yatharth purn prastuti jo bahut bahut achhi lagi.
dhanyvaad----
poonam
आदरणीय मनोज जी
ReplyDeleteनमस्कार
आपकी कहानी पढ़कर लगा कि अपने ही गाँव में पहुँच गया हूँ..
आँखों देखा हाल सुना दिया है आपने..
विकास अपने साथ क्षरण भी लेकर आता है..
संस्कृति और संस्कारों का विकास के साथ कोई मेल नहीं बैठता ..
हार गाँव की यही कहानी है..
आपकी लेखनी सजीव है...पीड़ा को शिद्दत से बयान करती है...
शुभकामनाएँ..
न जाने क्यों इस बरामदे में खड़े होकर अपनी नानी के घर का बरामदा याद आ गया...
ReplyDeleteआपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनायें ..
ReplyDeleteआज के सच का बहुत ही सटीक वर्णन
ReplyDeleteपहली बार आपको पढा है, बहुत खूब..
ReplyDeleteकहानी बड़ी लम्बी है तो लोग ऐसे भी हैं कि कमेंटस से अंदाजा लगाकर कि कहानी में क्या होगा..., कमेंटस कर देते हैं, ...देखिये हम कमेंटस नहीं कर रहे बता रहे हैं कि ऐसा भी होता है।
ReplyDeleteBeautifully written dost. Bahut sundar.
ReplyDeletenicely written about the transition happening in and around our life.
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