प्यास
गीता भवन बस स्टैंड. टूटी हुई सड़क, या फिर रेत और गिट्टी की मिलावट से बनी.. एक तरफ टिकट काउंटर और दूसरी तरफ खड़ी बसें. नवीन ने काउंटर पर पूछा - पालनपुर की बस कितने बजे है ? उधर से जवाब आया- साढ़े ग्यारह बजे जायेगी 5823 सामने लगी है.
एक टिकट दे दीजिए.
टिकट अंदर ही मिलेगा.
नवीन ने घड़ी पर नज़र डाली, ग्यारह बजे थे और आधा घंटा इन्तेज़ार, जून की उमस में उसे लगा यह समय व्यतीत होना मुश्किल है, उसने इधर उधर नज़र दौडाई, एक बड़े होर्डिंग पर बेहद खूबसूरत मॉडल का फ़ोटो, नीचे लिखा था इंटरनेशनल बस टर्मिनल, नवीन यह सोचते हुए मुस्कुराया 'जाने कब?'. नवीन शायद अहमदाबाद से पालनपुर नहीं जाता अगर उसका ट्रेन का दिल्ली का टिकट पालनपुर से ना बुक हुआ होता. अहमदाबाद से उस दिन सीट कन्फर्म नहीं थी.
'ठण्डु पानी जोईए साहिब' एक 9-10 साल का लड़का नवीन की तरफ देख रहा था, शायद उसके महेंगे रे बेन चश्मे में से यह ताडने की कोशिश करते हुए क्या यह बाबू मेरी बोतल खरीदेगा.
नवीन ने देखा पानी की बोतल एक अन्तराष्ट्रीय कंपनी की हुबहू नकल. 'नहीं चाहिये' नवीन ने कुछ बेरुखी से जवाब दिया. लड़का तुरंत दूसरे ग्राहक की ओर चल दिया. नवीन को प्यास लग आई थी. मौसी के घर से हड़बड़ी में निकला तो रास्ते में पानी की बोतल खरीदने की सोची मगर मोटरसाईकिल पर भाई से बात करते हुए सीधे बस स्टैंड पहुँच गए.
नवीन ने चश्मा उतरा और टी शर्ट पर टांग लिया. जींस में हाथ डालके ५ का सिक्का निकाला. पास ही खड़े चोकोर डिब्बी जैसे ठेले पर एक आदमी हैंडपंपनुमा मशीन से कांच की गिलासों में लोगों को पानी बेच रहा था. एक गिलास का एक रूपया. नवीन को मालूम था अहमदाबाद में पानी के पाउच मिलते हैं. उसने ठेले वाले से पूछा 'पाउच छे'.
'केटला आपूं' (कितने दूँ)
'एकज' (एक ही)
'ब आपजो' (दो देना)
पहले नवीन ने सोचा एक खरीदूं, फिर उसे ध्यान आया पालनपुर का सफर ३ घंटे का है और अगर बस किसी स्टॉप पर ज़्यादा देर ना रुकी तो प्यास से बुरा हाल होना निश्चित है. एक पाउच को खोला और पानी की धार सीधे गले तक पहुँच रही थी. पानी का स्वाद एकदम ठीक था, जैसा की होना चाहिये. उसने पाउच एक तरफ फेंका और बस में चढ़कर सीढियों के पास की सीट पर बैठ गया. एक किशोर आया और गुजराती में पूछने लगा - आ सीट खली छे (क्या यह सीट खाली है). नवीन ने गर्दन हिलाते हुए उसे बैठने के लिए कहा. एक बैकपैक और एक ट्रोली का सामान नवीन को ज़्यादा लग रहा था. ट्रोली सीट के नीचे सरकाई और बैकपैक ऊपर रेक में रख दिया.
खिड़की के ठीक नीचे बड़े से बांस पर एक आदमी कुरकुरे, सींगदाना (नमकीन सिकी हुई मूँगफली), चिप्स आदि बेच रहा था, नवीन ने एक चिप्स का पैकेट खरीद लिया. बस चल पड़ी. बादल घिर आये थे, हवा रहत भरी थी. खिड़की से आती हवा ने उसे बस की भीड़ के शोरगुल और इंजन के भरभराहट से काट दिया. वह अपने मिलिट्री स्कूल के ट्रेनिंग के दिनों को याद करने लगा. अभी सिर्फ़ १५ दिन तो हुए हैं उसे देहरादून से आये हुए. क्या दिन थे वोह भी !! बिल्कुल शांत केम्पस में शाम से लेकर देर रात तक अभिरंजन के साथ बैठना, वह कवितायें लिखता और अभिरंजन पैग लगाता. अभिरंजन उससे कई बार कहता 'बन्धु यह कविता भुविता कुछ काम नहीं आएगी, गोली एह नहीं देखती कि कौन है, कवि या शराबी...सीधे घुस जाती है' नवीन इसपर सिर्फ़ मुस्कुरा देता.
'भैया पैकिट गिर गया' पास ही बैठे किशोर ने चिप्स का पैकेट उठाकर उसे पकड़ाया. नवीन ने पैकेटखोलकर उसको कुछ चिप्स ऑफर की.. 'नहीं आप लो'
'अरे लो भई' किशोर ने मुस्कुराते हुए कुछ चिप्स लीं.
पोस्टिंग से पहले मौसी ने नवीन को अहमदाबाद बुलाया था. जब वह डेढ़ साल का था तो माँ उसकी नवजात छोटी बहिन के लालन पालन में व्यस्त रहती, आशी जन्म के समय से बेहद बीमार रहती थी, डॉक्टरों ने साफ़ केह दिया था 'माँ का पूरा दूध बच्ची को चाहिये वर्ना...' इन हालात में ग्यारह महीने मौसी ने नवीन की बहुत अच्छे से देखभाल की थी. नवीन कि माँ कहती थी अगर उषा ना होती तो नवीन को कौन देखता. माँ कई बार कहती 'नवीन की दो माएं हैं'. नवीन को जैसे ही मालूम होता कि उषा मौसी नानी के पहुँची हैं, वह माँ से जिद्द करता 'माँ, नानी के चलेंगे'. नवीन अपनी मौसी के काफी करीब था, उषा भी अपने बच्चों से ज़्यादा नवीन को चाहती थी.
बस मेहसाणा पहुँची, मैन बाज़ार स्टॉप पर जैसे भीड़ का रेला बस में घुस आया था. सबसे पीछे पसीने में लथपथ एक २१-२२ वर्षीया युवती चढ़ी, उसके पास दो ट्रवेल बैग थे, दोनों ज़रूरत से ज़्यादा सामान से ठुसे हुए थे. उसके साथ शायद उसकी बड़ी बहिन थी, उसके हाथ में एक २-३ साल कि प्यारी सी बच्ची थी. 'मिनाक्षी, ड्राइवर सीट ने पाछल बैग मुकी दे'(ड्राईवर सीट के पीछे बैग रख दे). उस युवती का नाम मिनाक्षी था. नवीन हालाँकि को-एड स्कूल में पढ़ा था पर वह लड़कियों से ज़्यादा घुलता मिलता नहीं था. मीनाक्षी को देखा तो बस देखता ही रह गया. बड़ी बड़ी आँखें, लंबी पलकें, गुलाबी होंठ, मोती जैसे दाँत, छोटी सी ठोड़ी, बाल कसकर पीछे चोटी बनाई हुई, चौड़ा माथा और दूध सा उजला रंग. चोटी से कुछ लटें छिटक कर उसके गोरे गालों पर आ गईं थीं, पसीने से भीगे लटें और उसकी बड़ी आँखें नवीन को उस पर से नज़र नहीं हटाने दे रही थी. अचानक ड्राईवर ने ब्रेक लगाया. सामने बछड़ा आ गया. २ मिनट तक बस रुकी रही, इस दौरान नवीन देख रहा था मिनाक्षी अपने बैग को संभल रही थी. उसने बंधेज वाला सूट पहना हुआ था, ग्रे रंग के सूट में सफ़ेद बंधेज और दुपट्टे की किनारी गुलाबी, शायद इससे बेहतर रंग संयोजन इस सूती सूट के लिए नहीं हो सकता था. मिनाक्षी की बाहें पतली थी और उँगलियाँ लंबी. वह शायद बैग में कुछ टटोल रही थी और उसे वह चीज़ नहीं मिल पा रही थी, इस दौरान वह कई बार झुकी और नवीन ने उसके सफ़ेद बदन को देखा.
'ना जाने मैं इस लड़की को इतनी देर से क्यों देख रहा हूँ ?' नवीन बुदबुदाया
किशोर बोला 'भिया कितने बजे हैं'
'एक चालीस'
इस छोटी सी बात-चीत से मिनाक्षी का ध्यान नवीन की तरफ गया, नवीन को लगा हो सकता है उसके हिन्दी बोलने के कारण वह उसे देख रही हो !
नवीन गोरा और लंबा था, उसे स्कूल में अक्सर लड़के चिकना कहते थे.
मिनाक्षी ने आँखें झुकाई और हल्के से मुस्कुराई. उसने फिर बैग में हाथ डाला, इस बार उसका मोबाईल मिल गया, इस दौरान वह फिर झुकी, कुछ ज़्यादा और नवीन उसकी उजली छातियों से नज़र नहीं हटा सका, तभी मिनाक्षी ने उसकी ओर देखा. नवीन अब उससे आँख नहीं मिला पा रहा, वह दुपट्टे से होठों के ऊपर और माथे का पसीना पोंछ रही थी मगर उसने दुपट्टा ठीक नहीं किया. वह शायद थक कर बस के फर्श पर बैठ गयी और नवीन की तरफ देख रही थी. नवीन ने भी उससे एक बार नज़र मिलायी, वह अभी भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, मानो उसकी चोरी पकड़ी गयी हो. मिनाक्षी ने भी उसकी तरफ देखा और हल्की मुस्कान उसके होठों पर तैर गयी. नवीन अब आश्वश्त था.
नवीन को प्यास लग आई, उसने बैकपैक से अहमदाबाद से खरीदा हुआ पाउच निकाला और थोड़ा पानी पिया, गर्म हो चुके पानी का स्वाद भी बदला सा था, उसने पाउच खिड़की से बाहर फेंक दिया. किशोर बोला 'भिया थोड़ी देर में उंझा बस स्टॉप आएगा उधर आप पानी ले लेना, बस पन्द्रह मिनट रुकेगी' नवीन ने हामी भरी.
ड्राईवर के पीछे लगी जाली के सपोर्ट से सर टिकाये मिनाक्षी झपकी ले रही थी
उंझा पर ड्राईवर ने बस स्टैंड के अंदर मोड़ी और रोक दी. इंजन के बंद होने के झटके से मिनाक्षी की आँख खुली.
नवीन बस से उतर रहा था, किशोर लड़का बोला 'भिया दो पानी पाउच मेरे लिए लाओगे आप', नवीन ने गर्दन हिला दी, वह पैसे देने लगा तो नवीन ने कहा 'खुल्ले हैं मेरे पास'
नवीन ने उतरकर पहले सिगरेट खरीदी और दो गहरे कश खींचे, शायद उस लड़की को दिमाग से बेदखल करना चाहता था. उसने चाय पी और दो पाउच ले जाकर खिड़की से उस किशोर को दिए. नवीन टोइलेट ढूँढने लगा, बस स्टैंड के दूसरे कोने में था. नवीन लौटकर आया तो देखा बस रवाना हो चुकी थी, वह लपका और बस में चढ़ गया, मिनाक्षी को जैसे खोया हुआ अपना मिल गया, चेहरे पर घबराहट साफ़ झलक रही थी, नवीन को देखकर उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान तैर गयी.
'भिया, मैंने ड्राईवर को बोला पर इसने सुना ही नहीं.' किशोर बोला.
नवीन ने मिनाक्षी की तरफ देखकर किशोर से कहा 'बस में से और किसी ने ड्राईवर को नहीं बोला'
'नहीं, इधर आपके पास तो मैं ही बैठा हूँ ना'
ड्राईवर अब बस को दौड़ा रहा था, आसमान में काले मेघ घिर आये थे, लगा किसी भी समय बरस पड़ेंगे. बस में भीड़ कम हो चुकी थी, मिनाक्षी को ड्राईवर के ठीक पीछे सीट पर जगह मिली, खिड़की के पास, उसने अपना चेहरा नवीन की तरफ रखा और मंद मंद मुस्कुराती रही, उसकी बहिन ने उसको पिछली सीट से मोबाइल दिया तो वह चौंक गयी, इस बार उसकी चोरी पकड़ी गयी. कुछ देर दोनों एक दूसरे को एकटक देखते रहे. खिड़की से बेहद ठंडी हवा आ रही थी, मानो किसी ने उधर से ए.सी. वेंट खोल दिया हो. पालनपुर २० की मी की तख्ती पीछे छूटी तो नवीन को लगा यह सफर इतना जल्दी खत्म क्यों हो रहा है. मिनाक्षी को फिर से झपकी आ गयी. हवा ठंडी थी पर बरसात का नाम नहीं था. कुछ देर में धूप निकल आई, नवीन ने अपना रे बेन पहना.
किशोर पूछ रहा था 'उधर जो लड़की बैठी है आप उसको पहचानते हो, आप उंझा पे नहीं आये तो वोह तो रोने वाली थी'
नवीन मुस्कुराया, कुछ देर में बस पालनपुर बस अड्डे में मुड़ी. झटके से मिनाक्षी जाग गयी, उसकी आँखों में लाल धागे से दिख रहे थे. नवीन ने एक आखिरी बार उसे देखा और मुस्कुराता हुआ बस से उतर गया.
एक टिकट दे दीजिए.
टिकट अंदर ही मिलेगा.
नवीन ने घड़ी पर नज़र डाली, ग्यारह बजे थे और आधा घंटा इन्तेज़ार, जून की उमस में उसे लगा यह समय व्यतीत होना मुश्किल है, उसने इधर उधर नज़र दौडाई, एक बड़े होर्डिंग पर बेहद खूबसूरत मॉडल का फ़ोटो, नीचे लिखा था इंटरनेशनल बस टर्मिनल, नवीन यह सोचते हुए मुस्कुराया 'जाने कब?'. नवीन शायद अहमदाबाद से पालनपुर नहीं जाता अगर उसका ट्रेन का दिल्ली का टिकट पालनपुर से ना बुक हुआ होता. अहमदाबाद से उस दिन सीट कन्फर्म नहीं थी.
'ठण्डु पानी जोईए साहिब' एक 9-10 साल का लड़का नवीन की तरफ देख रहा था, शायद उसके महेंगे रे बेन चश्मे में से यह ताडने की कोशिश करते हुए क्या यह बाबू मेरी बोतल खरीदेगा.
नवीन ने देखा पानी की बोतल एक अन्तराष्ट्रीय कंपनी की हुबहू नकल. 'नहीं चाहिये' नवीन ने कुछ बेरुखी से जवाब दिया. लड़का तुरंत दूसरे ग्राहक की ओर चल दिया. नवीन को प्यास लग आई थी. मौसी के घर से हड़बड़ी में निकला तो रास्ते में पानी की बोतल खरीदने की सोची मगर मोटरसाईकिल पर भाई से बात करते हुए सीधे बस स्टैंड पहुँच गए.
नवीन ने चश्मा उतरा और टी शर्ट पर टांग लिया. जींस में हाथ डालके ५ का सिक्का निकाला. पास ही खड़े चोकोर डिब्बी जैसे ठेले पर एक आदमी हैंडपंपनुमा मशीन से कांच की गिलासों में लोगों को पानी बेच रहा था. एक गिलास का एक रूपया. नवीन को मालूम था अहमदाबाद में पानी के पाउच मिलते हैं. उसने ठेले वाले से पूछा 'पाउच छे'.
'केटला आपूं' (कितने दूँ)
'एकज' (एक ही)
'ब आपजो' (दो देना)
पहले नवीन ने सोचा एक खरीदूं, फिर उसे ध्यान आया पालनपुर का सफर ३ घंटे का है और अगर बस किसी स्टॉप पर ज़्यादा देर ना रुकी तो प्यास से बुरा हाल होना निश्चित है. एक पाउच को खोला और पानी की धार सीधे गले तक पहुँच रही थी. पानी का स्वाद एकदम ठीक था, जैसा की होना चाहिये. उसने पाउच एक तरफ फेंका और बस में चढ़कर सीढियों के पास की सीट पर बैठ गया. एक किशोर आया और गुजराती में पूछने लगा - आ सीट खली छे (क्या यह सीट खाली है). नवीन ने गर्दन हिलाते हुए उसे बैठने के लिए कहा. एक बैकपैक और एक ट्रोली का सामान नवीन को ज़्यादा लग रहा था. ट्रोली सीट के नीचे सरकाई और बैकपैक ऊपर रेक में रख दिया.
खिड़की के ठीक नीचे बड़े से बांस पर एक आदमी कुरकुरे, सींगदाना (नमकीन सिकी हुई मूँगफली), चिप्स आदि बेच रहा था, नवीन ने एक चिप्स का पैकेट खरीद लिया. बस चल पड़ी. बादल घिर आये थे, हवा रहत भरी थी. खिड़की से आती हवा ने उसे बस की भीड़ के शोरगुल और इंजन के भरभराहट से काट दिया. वह अपने मिलिट्री स्कूल के ट्रेनिंग के दिनों को याद करने लगा. अभी सिर्फ़ १५ दिन तो हुए हैं उसे देहरादून से आये हुए. क्या दिन थे वोह भी !! बिल्कुल शांत केम्पस में शाम से लेकर देर रात तक अभिरंजन के साथ बैठना, वह कवितायें लिखता और अभिरंजन पैग लगाता. अभिरंजन उससे कई बार कहता 'बन्धु यह कविता भुविता कुछ काम नहीं आएगी, गोली एह नहीं देखती कि कौन है, कवि या शराबी...सीधे घुस जाती है' नवीन इसपर सिर्फ़ मुस्कुरा देता.
'भैया पैकिट गिर गया' पास ही बैठे किशोर ने चिप्स का पैकेट उठाकर उसे पकड़ाया. नवीन ने पैकेटखोलकर उसको कुछ चिप्स ऑफर की.. 'नहीं आप लो'
'अरे लो भई' किशोर ने मुस्कुराते हुए कुछ चिप्स लीं.
पोस्टिंग से पहले मौसी ने नवीन को अहमदाबाद बुलाया था. जब वह डेढ़ साल का था तो माँ उसकी नवजात छोटी बहिन के लालन पालन में व्यस्त रहती, आशी जन्म के समय से बेहद बीमार रहती थी, डॉक्टरों ने साफ़ केह दिया था 'माँ का पूरा दूध बच्ची को चाहिये वर्ना...' इन हालात में ग्यारह महीने मौसी ने नवीन की बहुत अच्छे से देखभाल की थी. नवीन कि माँ कहती थी अगर उषा ना होती तो नवीन को कौन देखता. माँ कई बार कहती 'नवीन की दो माएं हैं'. नवीन को जैसे ही मालूम होता कि उषा मौसी नानी के पहुँची हैं, वह माँ से जिद्द करता 'माँ, नानी के चलेंगे'. नवीन अपनी मौसी के काफी करीब था, उषा भी अपने बच्चों से ज़्यादा नवीन को चाहती थी.
बस मेहसाणा पहुँची, मैन बाज़ार स्टॉप पर जैसे भीड़ का रेला बस में घुस आया था. सबसे पीछे पसीने में लथपथ एक २१-२२ वर्षीया युवती चढ़ी, उसके पास दो ट्रवेल बैग थे, दोनों ज़रूरत से ज़्यादा सामान से ठुसे हुए थे. उसके साथ शायद उसकी बड़ी बहिन थी, उसके हाथ में एक २-३ साल कि प्यारी सी बच्ची थी. 'मिनाक्षी, ड्राइवर सीट ने पाछल बैग मुकी दे'(ड्राईवर सीट के पीछे बैग रख दे). उस युवती का नाम मिनाक्षी था. नवीन हालाँकि को-एड स्कूल में पढ़ा था पर वह लड़कियों से ज़्यादा घुलता मिलता नहीं था. मीनाक्षी को देखा तो बस देखता ही रह गया. बड़ी बड़ी आँखें, लंबी पलकें, गुलाबी होंठ, मोती जैसे दाँत, छोटी सी ठोड़ी, बाल कसकर पीछे चोटी बनाई हुई, चौड़ा माथा और दूध सा उजला रंग. चोटी से कुछ लटें छिटक कर उसके गोरे गालों पर आ गईं थीं, पसीने से भीगे लटें और उसकी बड़ी आँखें नवीन को उस पर से नज़र नहीं हटाने दे रही थी. अचानक ड्राईवर ने ब्रेक लगाया. सामने बछड़ा आ गया. २ मिनट तक बस रुकी रही, इस दौरान नवीन देख रहा था मिनाक्षी अपने बैग को संभल रही थी. उसने बंधेज वाला सूट पहना हुआ था, ग्रे रंग के सूट में सफ़ेद बंधेज और दुपट्टे की किनारी गुलाबी, शायद इससे बेहतर रंग संयोजन इस सूती सूट के लिए नहीं हो सकता था. मिनाक्षी की बाहें पतली थी और उँगलियाँ लंबी. वह शायद बैग में कुछ टटोल रही थी और उसे वह चीज़ नहीं मिल पा रही थी, इस दौरान वह कई बार झुकी और नवीन ने उसके सफ़ेद बदन को देखा.
'ना जाने मैं इस लड़की को इतनी देर से क्यों देख रहा हूँ ?' नवीन बुदबुदाया
किशोर बोला 'भिया कितने बजे हैं'
'एक चालीस'
इस छोटी सी बात-चीत से मिनाक्षी का ध्यान नवीन की तरफ गया, नवीन को लगा हो सकता है उसके हिन्दी बोलने के कारण वह उसे देख रही हो !
नवीन गोरा और लंबा था, उसे स्कूल में अक्सर लड़के चिकना कहते थे.
मिनाक्षी ने आँखें झुकाई और हल्के से मुस्कुराई. उसने फिर बैग में हाथ डाला, इस बार उसका मोबाईल मिल गया, इस दौरान वह फिर झुकी, कुछ ज़्यादा और नवीन उसकी उजली छातियों से नज़र नहीं हटा सका, तभी मिनाक्षी ने उसकी ओर देखा. नवीन अब उससे आँख नहीं मिला पा रहा, वह दुपट्टे से होठों के ऊपर और माथे का पसीना पोंछ रही थी मगर उसने दुपट्टा ठीक नहीं किया. वह शायद थक कर बस के फर्श पर बैठ गयी और नवीन की तरफ देख रही थी. नवीन ने भी उससे एक बार नज़र मिलायी, वह अभी भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, मानो उसकी चोरी पकड़ी गयी हो. मिनाक्षी ने भी उसकी तरफ देखा और हल्की मुस्कान उसके होठों पर तैर गयी. नवीन अब आश्वश्त था.
नवीन को प्यास लग आई, उसने बैकपैक से अहमदाबाद से खरीदा हुआ पाउच निकाला और थोड़ा पानी पिया, गर्म हो चुके पानी का स्वाद भी बदला सा था, उसने पाउच खिड़की से बाहर फेंक दिया. किशोर बोला 'भिया थोड़ी देर में उंझा बस स्टॉप आएगा उधर आप पानी ले लेना, बस पन्द्रह मिनट रुकेगी' नवीन ने हामी भरी.
ड्राईवर के पीछे लगी जाली के सपोर्ट से सर टिकाये मिनाक्षी झपकी ले रही थी
उंझा पर ड्राईवर ने बस स्टैंड के अंदर मोड़ी और रोक दी. इंजन के बंद होने के झटके से मिनाक्षी की आँख खुली.
नवीन बस से उतर रहा था, किशोर लड़का बोला 'भिया दो पानी पाउच मेरे लिए लाओगे आप', नवीन ने गर्दन हिला दी, वह पैसे देने लगा तो नवीन ने कहा 'खुल्ले हैं मेरे पास'
नवीन ने उतरकर पहले सिगरेट खरीदी और दो गहरे कश खींचे, शायद उस लड़की को दिमाग से बेदखल करना चाहता था. उसने चाय पी और दो पाउच ले जाकर खिड़की से उस किशोर को दिए. नवीन टोइलेट ढूँढने लगा, बस स्टैंड के दूसरे कोने में था. नवीन लौटकर आया तो देखा बस रवाना हो चुकी थी, वह लपका और बस में चढ़ गया, मिनाक्षी को जैसे खोया हुआ अपना मिल गया, चेहरे पर घबराहट साफ़ झलक रही थी, नवीन को देखकर उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान तैर गयी.
'भिया, मैंने ड्राईवर को बोला पर इसने सुना ही नहीं.' किशोर बोला.
नवीन ने मिनाक्षी की तरफ देखकर किशोर से कहा 'बस में से और किसी ने ड्राईवर को नहीं बोला'
'नहीं, इधर आपके पास तो मैं ही बैठा हूँ ना'
ड्राईवर अब बस को दौड़ा रहा था, आसमान में काले मेघ घिर आये थे, लगा किसी भी समय बरस पड़ेंगे. बस में भीड़ कम हो चुकी थी, मिनाक्षी को ड्राईवर के ठीक पीछे सीट पर जगह मिली, खिड़की के पास, उसने अपना चेहरा नवीन की तरफ रखा और मंद मंद मुस्कुराती रही, उसकी बहिन ने उसको पिछली सीट से मोबाइल दिया तो वह चौंक गयी, इस बार उसकी चोरी पकड़ी गयी. कुछ देर दोनों एक दूसरे को एकटक देखते रहे. खिड़की से बेहद ठंडी हवा आ रही थी, मानो किसी ने उधर से ए.सी. वेंट खोल दिया हो. पालनपुर २० की मी की तख्ती पीछे छूटी तो नवीन को लगा यह सफर इतना जल्दी खत्म क्यों हो रहा है. मिनाक्षी को फिर से झपकी आ गयी. हवा ठंडी थी पर बरसात का नाम नहीं था. कुछ देर में धूप निकल आई, नवीन ने अपना रे बेन पहना.
किशोर पूछ रहा था 'उधर जो लड़की बैठी है आप उसको पहचानते हो, आप उंझा पे नहीं आये तो वोह तो रोने वाली थी'
नवीन मुस्कुराया, कुछ देर में बस पालनपुर बस अड्डे में मुड़ी. झटके से मिनाक्षी जाग गयी, उसकी आँखों में लाल धागे से दिख रहे थे. नवीन ने एक आखिरी बार उसे देखा और मुस्कुराता हुआ बस से उतर गया.
कसक से भरी कहाना, रोचक भी, प्रारम्भ से अन्त तक।
ReplyDelete*कहानी
ReplyDeletekhamosh kahani....
ReplyDeleteपरदेशी की प्रीत की रे, कोई मत करियो होड़।
ReplyDeleteबणजारे की आग यूं भई, गया सुलगती छोड़॥
realistic..jaise zindagi mein kahani adhoori reh jaati hai, yahan bhi reh gai..ya ek khoobsoorat mod par chhoda hai aapne?
ReplyDeleteहम्म तो ये तो पक्का है कि अहमदाबाद जा चुके हो अहमदाबाद....पालनपुर....मेहसाना....ऊंझा हा हा हा और वो गुलाबी रंगत वाली???? बच्चू खतरे में खुद ही डाल रहे हो खुद को 'वो' पढ़ लेगी तो इसे लेखक की कल्पना नही कहेगी. अच्छा लिखा है एक बार में पढ़ गई हा हा हा
ReplyDelete@इंदु पुरी
ReplyDeleteहाँ अहमदाबाद कई बार जा चुका हूँ, बस और ट्रेन के स्टॉप याद हैं. और इन यात्राओं की ऊब ने इस कहानी को जन्म दिया. पात्र काल्पनिक हैं.
'वो' इस कहानी को पढ़ चुकी है, उसे भी पसंद आयी.
एक ही साँस में पढ़ गयी. आप ये कैसे कह सकते हैं कि आप अच्छा नहीं लिखते....मुझे तो बहुत अच्छा लगा...
ReplyDeleteकहानी पसंद आई मनोज जी.....
ReplyDeleteपसंद ही नहीं बहुत बढिया..
क्या वर्णन है..... कपड़ों का...जज्बातों को...
महीने में एक पोस्ट लिखते हो... लेकिन भिगो भिगो कर..:)
बिस्तर पर लेटे लेटे अपना ipad पर इस कहानी को पढा। एक बस अड्डे की और बस यात्रा करते समय जो वातावरण उत्पन्न होता है, उसका चित्र आपने बखूबी खींचा है।
ReplyDeleteकहानी पढकर गुजरे हुए दिनों की याद आ गई। एक जमाने में हम भी बस यात्रा किया करते थे। पर मेरा एक पुराना अनुभव तो इस कल्पनिक (सच?) नवीन के अनुभव से मीठा था।
बात 1967 की है जब मै 18 साल का था। मैं दिल्ली से देहरा दून जा रहा था, बस से। बस रवाना होने में कुछ ही मिनट बचे थे जब एक 40-45 साल की महिला मेरी सीट पर आई और विनम्रता से पूछी कि क्या मैं अपनी सीट बदलने के लिए तैयार हूँ? कारण बडा विचित्र था! महिला ने कहा "My daughter is traveling in the seat behind you and I don't like the looks of that fellow sitting next to her. He is willing to move forward to your seat since yours is a window seat. Can you please agree to sit next to my daughter? She is travelling alone."
मुझे बडा अजीब लगा था पर मैं मान गया और अपनी खिडकी वाली सीट उस आदमी को देकर, उस 16 साल की सुन्दर लडकी के पास बैठ गया और रास्ते में उससे बात करते करते कब 7 घंटे बीत गए, पता ही नहीं चला।
मुझे अब भी याद है उसका पूछा हुआ एक प्रश्न और मेरे उत्तर का उसपर प्रभाव।
"What are you doing?"
"I am a civil engineering student at BITS Pilani"
"Wow! which engineering is the TOUGHEST?"
गर्व से हमने उत्तर दिया था "Civil engineering"
उस भोली लडकी ने मेरी बात पर यकीन कर ली और मुझे रास्ते में अपने विषय के बारे में खूब डींग मारने का अवसर मिला था।
44 साल बीत गए हैं। उस लडकी का चेहरा मुझे आज भी याद है। कहाँ है वह आज? क्या उसे यह किस्सा याद है?
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
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बाँध के रखती है आपकी प्यास!
ReplyDeleteबुझी???
आशीष
kahani bahut achchi likhi hai aapne kuch kuch galtiyan hai kabhi milenge teen yaar to bataunga....
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